बनवारी

भारतीय समाज की ऊर्जा लौट रही है और भारत की आत्मा जाग रही है। अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय में जो बहस हो रही है, उसे देश के बहुत से लोग देख-सुन रहे होंगे। वे इन सभी प्रश्नों पर अपनी राय बना रहे होंगे, अपना मत स्थिर कर रहे होंगे।

सर्वोच्च न्यायालय में अयोध्या विवाद को लेकर बहस चल रही है। अब तक हिन्दू पक्ष के वकील अपना पक्ष रखते हुए अपने तर्क दे चुके हैं। अब मुस्लिम पक्ष के वकील अपना पक्ष रखते हुए अपने तर्क दे रहे हैं। इस सुनवाई के दौरान अनेक ऐसी बातें उठी हैं, जिनका निर्णय मुख्यत: शास्त्रज्ञ लोगों को करना चाहिए। लेकिन इस सुनवाई में उनकी कोई भूमिका नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय अनेक प्रश्नों पर उनसे स्पष्टीकरण मांग सकता था। लेकिन उसने ऐसे सभी प्रश्नों पर सही उत्तर ढूंढने का दायित्व उन वकीलों पर डाल रखा है, जो दोनों पक्षों की ओर से बहस कर रहे हैं। अखबारों के माध्यम से इस बहस की जानकारी देश भर के आम लोगों तक पहुंच रही है।

अखबारों में पूरी बहस नहीं आ पाती, उसकी एक संक्षिप्त और अधिकांशत: अपर्याप्त रिपोर्ट ही होती है। इसलिए इस बहस में आ रही सब बातें सार्वजनिक चर्चा में नहीं आ पाएंगी। दूसरे, बहस कानूनी दायरे में हो रही है। धर्म संबंधी प्रश्नों को कानूनी दृष्टि से देखने की अपनी समस्या है। बहस के दौरान वकीलों ने हिन्दू कोड और शरिया आदि का मंतव्य भी बताने की कोशिश की है। लेकिन वकीलों के उत्तरों से लगता नहीं है कि उन्हें बहस के दौरान उठे प्रश्नों पर शास्त्रीय दृष्टि का ठीक अनुमान है। हमारी अदालतें जिस कानूनी दृष्टि पर निर्भर हैं, उसका विकास भारत से बाहर मुख्यत: यूरोपीय देशों में हुआ है।

इसलिए हमारे न्यायिक प्रतिष्ठान से जुड़े अधिकांश लोगों को भारतीय शास्त्रीय दृष्टि की कम ही जानकारी होती है। फिर भी आशा की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय अयोध्या विवाद का निपटारा दोनों पक्षों की मूलभूत धारणाओं को आत्मसात करके करेगा। अयोध्या विवाद पर बहस के दौरान उठ रहे विभिन्न मौलिक प्रश्नों पर केवल वकीलों की ही सीमाएं हों, ऐसा नहीं है। भारतीय शास्त्रीय दृष्टि के बारे में हमारे बौद्धिक जगत में जो गहरा अज्ञान बना हुआ है, उसने भी इसमें योगदान दिया है। अधिकांश बौद्धिक व्यक्ति भारत में निराकार ब्रह्म और ईश्वर के साकार रूप में क्या संबंध है, यह नहीं समझ पाते। भारत में निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म को लेकर लंबी और सारगर्भित विवेचना हुई है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में उसे सार रूप में रख दिया है।

हमारी मनीषा यह जानती है कि परमात्मा निर्गुण और निराकार है, लेकिन उसे नाम -रूप के बिना ग्रहण करना संभव नहीं है। केवल योगसाधना की अंतिम अवस्था में ही उसका उस रूप में बोध हो सकता है। यह समझने के लिए इस बात को भी याद रखना आवश्यक है कि भारतीय दृष्टि से समूची सृष्टि परमात्मा का ही अंश रूप है। वह अमूर्त के अंश का मूर्त में रूपांतरण ही है। इस नाते हम ब्रह्म और सृष्टि के द्वैत को नहीं मानते। हमारे यहां दार्शनिक स्तर पर जिस द्वैत की बात की गई है वह भक्तिमार्ग के स्वरूप को समझने के लिए ही की गई है।
इसी प्रक्रिया में भगवान की मूर्ति का अर्विभाव हुआ। मूर्ति के लिए शास्त्र में जो संज्ञा प्रयुक्त की जाती है, वह देव विग्रह हैं। हमारी मान्यता है कि देवता सर्वव्याप्त है। मूर्ति में उसका विशेष रूप से ग्रहण होने के कारण ही उसके लिए विग्रह संज्ञा का व्यवहार होता है। इस अर्थ में मूर्ति भगवान का साकार रूप है, दिव्य है, पवित्र है और हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न अंग है। मध्यकाल में हमारे इन दिव्य रूपों का जिन लोगों ने भी उल्लंघन किया था उन्होंने हमारी सभ्यता के साथ अपराध किया था।

उस अपराध के चिन्हों का बने रहना हमारे समाज के समरस विकास के लिए अच्छा नहीं हो सकता। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि देवता जिस तरह विशेष रूप से अपने विग्रह में विद्यमान है, उसी तरह उसका संबंध उस स्थान विशेष से भी है, जहां वह विग्रह अवस्थित है। भगवान शिव के अथवा भगवान विष्णु के देश में असंख्य मंदिर हैं। सब जगह वे उस स्थान विशेष के देवता हैं और इसलिए उन सब जगह उनका रूप और नाम भी विशेष ही है। सम्राट हर्ष जिस मंदिर में पूजा करने जाते थे, वहां भगवान शिव का विग्रह था और उसे स्थानेश्वर के नाम से जाना जाता था। वही भगवान शिव काशी में विश्वेश्वर हैं और कर्नाटक के धर्मस्थल में मंजूनाथ। यह भी मान्यता है कि काशी क्षेत्र के अधिपति भगवान विश्वेश्वर ही हैं। यही कारण है कि चंद्रवंशी राजा अपनी मूल राजधानी काशी से प्रयाग ले गए थे और उसके बाद चंद्रवंशियों की राजधानी प्रयाग हुई।

काशी की तरह जगन्नाथ क्षेत्र के स्वामी भगवान जगन्नाथ हैं और पुरी में जब भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकलती है तो वहां के राजा रास्ता बुहारते हुए चलते हैं। हमारी सभ्यता में देव विग्रह और देव स्थान दोनों अनुलंघनीय रहे हैं और कोई राजशक्ति उनका उल्लंघन नहीं कर सकती। शैव क्षेत्रों में वैष्णव राजा हुए हैं और वैष्णव क्षेत्रों में शैव। लेकिन यह मयार्दा तोड़ने का साहस तो क्या कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। जिन शक्तियों ने यह दुस्साहस किया, वे हमारी सभ्यता के बाहर की शक्तियां थीं। वह हमारा विपत्तिकाल था। हमारे बल की क्षीण अवस्था में वह सब हो गया। लेकिन हमारी सभ्यता के उत्कर्ष काल में हमारे दिव्य स्थानों की अवमानना होती नहीं रह सकती।

यह अकल्पनीय है कि अपने दिव्य स्थानों की मर्यादा पुनर्स्थापित किए बिना हम अपनी सभ्यता का गौरव स्थापित करने का सपना देखें। भारत के साधारण लोग इस बहस में नहीं उलझना चाहेंगे कि हमारी कानूनी व्यवस्था में न्यायिक पक्षकार की संज्ञा किस पर लागू होती है किस पर नहीं। लेकिन अयोध्या में भगवान राम का जन्म हुआ, यह तथ्य है। इसके लिए कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं हो सकता। त्रेता युग और कलयुग की कालावधि के पाटा नहीं जा सकता। अयोध्या में भगवान राम का जन्म स्थान दिव्य क्षेत्र के रूप में पूजित नहीं हुआ होगा, वहां मंदिर नहीं बनाया गया होगा, उसका जीर्णोद्धार नहीं होता रहा होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

मध्यकाल में जिन बाहरी शक्तियों ने यहां बलात शासन स्थापित किए, उन्होंने इस्लाम की दृष्टि से अधिकांश मंदिरों को तोड़ना अपना मजहबी और राजनैतिक लक्ष्य बना लिया था। इसके साक्ष्य उपलब्ध हैं और सबको ज्ञात हैं। इस सब पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए भारतीयों की कोई भी महापंचायत राम जन्मभूमि विवाद को हल करने में पल भर भी नहीं लगाती। उस पंचायत के मुस्लिम सदस्यों की राय हिन्दुओं से भिन्न रही होती, यह सोचना कठिन लगता है। जो काम किसी परंपरागत पंचायत के लिए सामान्य विवेक-बुद्धि से सहज हुआ होता, वह आज की राजनीति और अदालतों के कारण अब तक उलझा रहा है।

इससे हम अपनी न्याय प्रणाली की भी सीमाओं को देख सकते हैं और अपनी राजनीति की भी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी तरफ से यह प्रयत्न अवश्य किया कि यह पूरा विवाद परस्पर सहमति से निपट जाए। वह संभव नहीं हुआ क्योंकि राजनीति ने इस विवाद को न्याय से अलग करके शक्ति परीक्षण बना दिया है। सर्वोच्च न्यायालय अब इस विवाद पर अपना निर्णय सुनाएगा। वह निर्णय अंतत: भारतीय समाज की वृहत पंचायत के सन्मुख होगा और अंतिम निर्णय उसी का होगा। बहरहाल यह संक्रमण का काल है। 1947 में हमें राजनैतिक स्वाधीनता मिल गई। राज्य की बागडोर अंग्रेजों के हाथ निकलकर हमारे अपने नेताओं के हाथ में आ गई।

उस समय की कठिन परिस्थितियों में अंग्रेजों के खड़े किए गए तंत्र को हटाकर हम अपनी सभ्यता की मूल मान्यताओं पर आधारित अपना तंत्र नहीं खड़ा कर पाए। उसकी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि अंग्रेजी शिक्षा ने हमारी बुद्धि में यूरोपीय विचारों का आरोपण काफी गहराई से कर दिया था। इस आरोपण को हटाकर अपनी स्मृति का उद्धार करने में समय लगेगा, पर वह धीरे-धीरे हो रहा है। हमारा आत्मविश्वास भी लौट रहा है और अपनी सभ्यता में हमारी निष्ठा भी लौट रही है। अब तक की गति भले धीमी रही, आगे उसमें तेजी आएगी और अगले कुछ ही दशकों में हम अपनी सभ्यता के स्वरूप को लौटा पाएंगे, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है।

भारतीय समाज की ऊर्जा लौट रही है और भारत की आत्मा जाग रही है। उदाहरण के लिए अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय में जो बहस हो रही है, उसे देश के बहुत से लोग देख-सुन रहे होंगे। वे इन सभी प्रश्नों पर अपनी राय बना रहे होंगे, अपना मत स्थिर कर रहे होंगे। अब भारतीय स्वतंत्र हैं और वे अपनी विवेक बुद्धि से सभी सामाजिक विषयों पर सोच-समझ सकते हैं। इसी के द्वारा सामाजिक जागरण होता है। भारतीय समाज की विवेक बुद्धि का यह प्रवाह उन सब संकीर्ण धाराओं को बहा ले जाएगा, जो अब तक हमारी सभ्यता के रास्ते की बड़ी बाधाएं बनी रही हैं। यह संकीर्ण धाराएं यूरोपीय विचारधाराओं की देन थीं। वे रेत में रोपी हुई जैसी थीं। भारतीय सभ्यता के प्रवाह को उन्हें बहा ले जाने में अधिक देर नहीं लगेगी।