एन के सिंह

तुलसी ने “बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप बिषमता खोई” भी कहा था,और “नृपहिं दोष नहीं दिन्हिं सयाने” (ज्ञानी लोग राजा में दोष नहीं देखते ) भी। चुनाव आप का है। पांच सौ साल पुराने विवाद और डेढ़ सदी पुरानी कानूनी लड़ाई के बाद आराध्य देव भगवान राम के भव्य मंदिर का शिलान्यास देश और विदेश में रह रहे करोड़ों लोगों के लिए गर्व और हर्ष का विषय है, लेकिन उन्माद का नहीं। राम के चरित्र में उन्माद नहीं था। लंका विजय के बाद भी नहीं। आराधना क्यों होती है और क्यों हम देवी-देवताओं की मंदिर में प्रतिष्ठापना करते हैं, पूजा करते हैं और उनके लिए प्राण न्योछावर करने को भी पुण्य मानते हैं?

भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम है। यानि नैतिक रूप से जीवन जीने से ले कर समाज हीं नहीं जीव के प्रति अपनी उपादेयता के लिए हजारों साल से बनाये गए मूल्यों के प्रति पाषाण जैसे दृढ़ता। वाल्मीकि और तुलसी ने राम को मर्यादा के उस मुकाम पर प्रतिष्ठापित किया जो दुनिया के धर्मों के लिए एक मिसाल बन गया। लिहाज़ा आज हमें एक बार फिर से यह देखना होगा कि मंदिर एक ईमारत न होकर हमारे वैयक्तिक और सामूहिक जीवन में कितना बदलाव करता है। राम भक्ति इससे कम या इससे अधिक कुछ भी नहीं है।

राम के चरित्र में उद्दात व्यक्तिगत मूल्य का मुजाहरा उनके पिता के कहने पर राज्य छोड़ जंगल में निवास में है, तो वीर-भाव रावण से युद्ध में है। समाज के प्रति कर्तव्य राक्षसों का वध करके है तो राजधर्म का निर्वाह राजा बनते हीं सभी बुद्धिमान जनों की समिति के जरिये राजकाज चलाने में है, लेकिन जहां राजा का कर्तव्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रजा को किसी भी किस्म का दैहिक, मानसिक या भौतिक दुःख न पहुंचे वहीं प्रजा को भी कहा गया है कि वह अपने-अपने धर्म की नीति अनुरूप जीवन जीते हुए आपस में प्रेमभाव से रहे।

यह राजा का कर्तव्य है कि इस तरह का माहौल पैदा करे कि प्रजा का प्रेमभाव प्रगाढ़ बना रहे। गांधी ने 30 जनवरी, 1930 को रामराज्य शीर्षक एक लेख में कहा “अगर किसी को इस शब्द से ऐतराज हो तो हम इसे धर्मराज्य कह सकते हैं लेकिन रामराज्य का उद्देश्य है “गरीबों की सम्पूर्ण रक्षा” और “राम हमारे भीतर हैं केवल हम उन्हें पहचानते नहीं हैं”. आइये, मंदिर की हर ईंट लगने के साथ हम प्रतिज्ञा करें कि व्यक्तिगत सुचिता से मजबूत होते हुए हम भ्रष्टाचार को समाज से ख़त्म कर राम-भक्ति की पराकाष्ठ प्राप्त करें। गलती से भी “नृपहिं दोष नहीं दिन्हिं सयाने” (ज्ञानी लोग राजा में दोष नहीं देखते ) ।