उमेश सिंह

मै अयोध्या सिर्फ शब्द भर नहीं हूँ , शब्दब्रह्म हूं। कमोबेश व्यापक,व्यापक , अखंड और अनंत जैसी स्थिति मे हूँ। संस्कृति की शिला पर मै हर युग मे स्वर्णिम हस्ताक्षर करती रही हूं। संस्कृति एवं सभ्यता का अंतिम शिरा जिस बिंदु पर जाकर ठहर जाता है , वह मै ही हूँ। सभ्यता के नजरिए से कुछ कुछ सकुचाती हुई लेकिन संस्कृति के फलक पर इठलाती हुई आदि से आज तक चेतना के गौरीशंकरों के प्रसव की उर्वर भूमि रही हूं। कला ,साहित्य ,संगीत अध्यात्म और राजनीति हर क्षेत्र में अपने युग में नव-व्याकरण की रचना करती रही हूं। अयोध्या से आशय सिर्फ एक धार्मिक नगरी भर से नहीं है ,बल्कि अयोध्या की संस्कृति -सभ्यता -संस्कार -सरोकार की प्राण ऊर्जा जहां तक प्रवाहमान है ,वह सब कमोबेश अयोध्या ही है। समय की अबाध धारा में मेरी उर्वर जमीन ने क्या नहीं दिया ? मै यह गर्व के साथ कह सकती हूं , हां ! “ मैंने देखी है शान “।

राजा को सन्यासी होते हुए देखा है। सन्यासी गुणधारी को राजा होते हुए। ऋषभदेव हमारे ही आंगन के हैं। बलकल भेष में आर्यावर्त को अपने क़दमों से नापते पुरुषोत्तम नवीन राम को देखा है। सिंहासन छोड़ जमीन पर सोते योगिराज भरत को देखा है। ऋषि -मुनियों -सन्यासियों की अखंड साधना और उनके तप को महसूस किया हूं। समाजवाद की वैचारिकी मशाल को जलाते हुए और मिसाल बनते हुए डॉक्टर लोहिया आचार्य नरेंद्र देव को देखा है। यूरोप के राज महलों की दीवानगी भी देखी है।जामदानी कलाकारों की कलात्मक आभा हमने देखी है। इसी कला पर यूरोप रींझ गया था। मृदंग सम्राट पागलदास हमारे ही आंगन के है, जिनके हाथ की थाप पर शक्ति की सुषुप्त धारा उमग पड़ती थी।मेरा घर-आँगन-ओसारा ऐसा है ,जहां राज्यवंशियों और शब्दवंशियों में मानो होड़ सी मची हुई है। राज्यवंशी राम को शब्दवंशी महात्मा तुलसी मिल गए। फिर क्या हुआ? राम का जन-जन के कंठ में वास हो गया। मै ऋषि-कृषि संस्कृति से रची-भरी भूमि हूँ

मैं अयोध्या की सांस्कृतिक राजनीतिक धुरी हूं। मेरे आंगन में सभी धर्मों के फूल खिले। महात्मा आए और महावीर भी। आजीवक मक्खलि गोसाल भी मुझ पर रींझ गए थे। महात्मा बुद्ध ने आध्यात्मिक एकांत के लिए सबसे ज्यादा चौमासा मेरी ही गोद में बिताया। अश्वघोष मेरी ही संतान था जिसने बौद्ध दर्शन को अपनी अचूक तर्कशीलता की बदौलत आसमानी बुलंदी दी। श्रेष्ठ यनि की पुत्री विशाखा की दानशीलता मेरे जेहन में रह-रहकर को कौंधती है। मेरी उस जगह पर आज भी हर साल दक्षिण पूर्वी एशिया के बौद्ध मतानुयायी आकर सिर झुकाते है।महात्मा बुध का कटोरा जेड स्टोन से बना माना जाता है। आज भी यहां झाड़ियों में माटी के अंदर दबे पत्थर से बुध आराधक आकर्षित होते हैं। कहते हैं कि यही विशाखा का महल था। मेरे इस हरे रंग के पत्थर में तमाम गुण हैं। हल्का तो है ही ,पानी पड़ते ही हरे रंग में चमकने लगता है।

ऋषभदेव ही नहीं , मेरी कोख में अजित नाथ , सुमित नाथ अभिनंदन नाथ और अनंत नाथ जैसे तीर्थंकरों को जना। मेरी रत्नपुरी यानि रौनाही आध्यात्मिक उदासी की चादर में आज भले ही लिपटी हो लेकिन कभी जैन विचारकों का महत्वपूर्ण केंद्र हो अपने वैभव पर इतराता रहता था। मैं रोती बिलखती रहती हूं रत्नपुरी को देखकर कि कभी अहिंसा के विचारों का जमावड़ा जहां रहता था , वहां के चतुर्दिक कुछ किलोमीटर के दायरे में विचार परिवर्तन की जैसे दूसरी धारा बहने लगी है। धर्मनाथ स्वामी ने जो अलख जगाई थी अब उसके स्वर मंद पड़ रहे हैं। मेरा आंगन सर्व धर्मों की नजीर भी है। यहां अजान के साथ राम नाम की धुन बजती है तो बुद्धम शरणम गच्छामि के साथ दूसरे धर्मों की सूक्तियां लोगों की जुबान पर तैरती रहती है। हजरत पैगंबर की मजार पर देश ही नहीं विदेश से भी शीश नवाने लोग आते हैं।

स्वर्गद्वार स्थित हजरत इब्राहिम शाह की मजार भी आस्था का बड़ा केंद्र है। कल – कल करती पुण्य सलिला सरयू का स्पर्श मुझको आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सौंदर्य से भर देता है। मै चार हज़ार से ज्यादा मंदिरों से भरी हुई हूं। सूर्य की किरण फूटने के पहले मेरे आँगन मे देववाणी के स्वर गूंजने लगते हैं। अखंड राम नाम संकीर्तन हमारी पहचान है। नैतिक मान्यताओं का प्रकाश पुंज रामचरितमानस हमारे ही आंगन में पूर्णता को प्राप्त हुआ। भातृत्व प्रेम की अद्भुत मिसाल भरतकुंड में भक्तों की भीड़ देख मन आनंद से भर उठता है। बदलते दौर में आज भी मै प्रासंगिक हूँ और लोग मुझ से प्रेरणा ले रहे हैं। सांस्कृतिक शंखनाद के संवाहक विवेकानंद के आध्यात्मिक अभीप्सा जिस लक्ष्मण किला में दार्शनिक संवाद से शांत हुई ,वह भी मेरा ही आँगन -ओसारा है। माईवाडा में महिलाओं के अंतर्मन में उठती आस्था की लहरों को देख मैं गौरवान्वित हो उठती हूं ,क्योंकि इनके रोम रोम में राम बसे हुए हैं। मेरे पास सीता राम नाम बैंक भी है। मृदंग सम्राट राम शंकर दास ‘ पागल दास ‘ तथा तालमणि विजयराम दास और मार्गी संगीत के मर्मज्ञ और मौन साधना के प्रबल हिमायती राम आसरे गवैया को याद कर मैं पुलकित हो जाती हूं।

कपकपाती आवाज से शब्दों की सत्ता को चिरंतन बना देने वाली मल्लिका ए गजल बेगम अख्तर को भला कोई भूल सकता है। अख्तर की दर्द भरी आवाज का ही जादू था कि चिड़ियों की चहचहाहट शांत हो जाती थी। पदम अलंकारों से अलंकृत मेरी बेटी भदरसा के जिस घर में पैदा हुई वह मिट्टी के ढेर में तब्दील हो गया। उन निशानियां को टुकुर-टुकुर निहारते हुए रुदन करती हूं। किसी ने भी मेरी वेदना को महसूस नहीं किया। नवाबी युग में मेरी शान सूर्य की मध्यान्ह गरिमा तक पहुंच गई। ईरान के निशापुर के सहादत अली खान ‘ बुरहान उल मुल्क ‘ को मेरी ही जमीन अच्छी लगी। फिर क्या हुआ ? फारसी स्थापत्य शैली की चमकती दमकती इमारतों ने मेरी सुंदरता को बढ़ा दिया। नजाकत और नफासत मेरी संस्कृति की पहचान बन गई। गुलाब बाड़ी में शुजाउदौला का मकबरा , नाका में बहू बेगम का मकबरा अफीम और सरयू के तट की ओर बनी खानम का मकबरा बने।

मंदिर हो या मस्जिद दोनों के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण दो मछलियों के मार्फत मै सांप्रदायिक सौहार्द की खुशबू बिखेर रही हूँ। इमामबाड़ा सबसे पहले मेरे यहां गुलाबबाड़ी में ही बना था। मेरे बाग बगीचों ,खूब सूरत इमारतों ,चटक रंगधारी पंख वाले पक्षियों से मुगल बादशाह बाबर बहुत प्रभावित हुआ था। अंग्रेज व्यापारी फिंच ने मुझे देखा तो उसके हवाले से विलियम कोस्टर ने अली ट्रेवल्स इन इंडिया में लिखा की रानी चंद यानी रामचंद का किला और महल खंडहर के रूप में विद्यमान हैं। खुलासत उत तवारीख़ में बढ़िया चावल और अच्छी खेती के नाते मेरी प्रशंसा की गई। औरंगजेब के समय मेरी माटी इतनी मूल्यवान थी कि उसमे सोना मिलता था। सरयू के किनारे की मिट्टी -बालू को चलनी से छान कर सोना निकाला जाता था। मेरी नदी सई में मछलियां इतनी थी कि जाल डालते ही वह मछलियों से भर उठता था। जे एन सरकार ने इंडिया औरंगजेब में इसकी तस्दीक की है। सिखों के मामले में भी मेरा गौरवशाली अतीत रहा है।

करमदांडा और भिटौरा में सिक्को का ढेर मिला जो क्रमशः गुप्त और मौखरि शासकों की मौजूदगी बयां करते हैं। कार्नेक को मौखरियो के सिक्के यहीं से प्राप्त हुए थे। कला साहित्य और संस्कृति में जौनपुर को पूर्व का शिराज का ओहदा दिलाने वाला शेरशाह सूरी की मौद्रिक व्यवस्था का बड़ा केंद्र टकसाल मोहल्ला रहा है। उस दौर की चूने की बनी फतेहगंज -चौक की सड़क अब भी मौजूद है। मुगल शासक मोहम्मद शाह के समय 1722 में मेरे टकसाल में जो सिक्के ढलते थे ,उस पर मेरा दो नाम अंकित है। अवध तथा अख्तर नगर। नवाबी युग में मेरी रौनक तो पूछिए मत। डब्ल्यू होवे को कहना पड़ा कि फैजाबाद की रौनक आगरा और दिल्ली की रौनक से टक्कर लेने लगा। मेरी संपन्नता ऐसी की बैंकिंग कारोबार के क्षेत्र में ब्रिटिश पूजी के एकाधिकारवादी वर्चस्व को हम ने तोड़ा। भारतीयों की पूंजी से 1861 मे पहला इंडियन बैंक अवध कमर्शियल बैंक लिमिटेड खुला , जो देशवासियों के आर्थिक अस्मिता का प्रतीक बन कर उभरा। लाजपत नगर में पीली बूढ़ी बिल्डिंग के दक्षिणी दीवार में धुंधला नाम आज भी बाहर झांक रहा है जो इसकी यादों का मूक गवाह है। बर्मिंघम से जे एच इलियट एंड कंपनी की आई तिजोरी बैंकिंग इतिहास की अनमोल धरोहर है जो पत्थर कोठी में अब भी मौजूद है।

1850 में कर्नल डब्लू एच स्लीमन की आंखें चौधिया गई। उसने अपने आका को मुझे अंग्रेजी राज में मिलाने की रिपोर्ट दे दी। नवाबी युग में अंग्रेजों द्वारा मुझे ऐसी बेशर्मी से लूटा गया कि उसकी गूंज ब्रिटिश संसद में भी सुनाई पड़ी। बेगम की शरीर से भी आभूषण उतरवा लिए गए। अवध की ऐसी ही परिस्थितियों में संभवत: नंगाझोरी शब्द पैदा हुआ।

29 मार्च 1857 को मेजर ह्युस्टन के सीने में गोली उतारने सत्तावनी क्रांति के महानायक मंगल पांडेय का रिश्ता भी हमसे है। 19 दिसंबर 1929 को फांसी के तख्ते से अश्फ़ाक उल्ला खान ने कहा , मन ही मन अभिमान कर रहा हूं यह सोच कर कि सात करोड़ मुसलमान भारत वासियों में में सबसे पहला मुसलमान हूं जो भारत माता की स्वतंत्रता के लिए फांसी पर चढ रहा है। फिरंगियो ने उन्हे अपनी हुकूमत का दुश्मन नंबर एक घोषित किया था। मौलवी अहमद शाह ने मेरी ही जमीन की जरूरत पड़ी तो मेरे मंदिर ही क्रांतिकारियों की स्थली बन गए। ब्रह्मचारी वासुदेवाचार्य , खाकी अखाड़े के महंत भगवान दास , हनुमानगढ़ी के वनवीर दास और मेरठ मंदिर के शिवकुमार त्रिपाठी पुत्र थे। मेरे आंगन में पला बढ़ा नरेंद्र देव ने समाजवाद की मशाल को और तेज कर दिया।प्रेमचंद की दोस्ती को परवान चढ़ाने वाला मासिक पत्र सुबह उम्मीद यहीं से निकलता था। कवि सम्मेलनों की प्राण ऊर्जा निशंक मतवाला और मधुर मेरी ही पहचान थे।