विशाल गुप्ता

अयोध्या नगर से बाहर निकले तो चौरासी कोसी परिक्रमा के बीच ६५ ऐसे स्थल चिन्हित किए गए थे जिन्हें तीर्थ के रूप में मान्यता है। इनमें वैतरणी कुंड, सूर्यकुंड, नरकुंड, नारायण कुंड, रति कुंड, कुसुमायुध कुंड, दुर्गा कुंड, मंत्रेश्वर कुंड, गिरिजा कुंड, श्री सरोवर, बड़ी देवकाली, निर्मली कुंड, गुप्तार घाट, गुप्तहरि, चक्रहरि, यमस्थल, विघ्नेश्वर शंकर जी, योगिनी कुंड, इंद्र कुंड, बंदी देवी, मख स्थान, मनोरमा, रामरेखा, श्रृंगी ऋषि, वाल्मीकि, विल्वहरि, त्रिपुरारी, पुण्यहरि, हनुमान कुंड, विभीषण कुंड, सुग्रीव कुंड, रामकुंड, सीता कुंड, दुग्धेश्वर महादेव, भैरव कुंड, तमसा नदी, च्यवन आश्रम, श्रवण क्षेत्र, गौतम आश्रम, रेणुका तीर्थ, रसाल वन, मांडव्य आश्रम, मानस तीर्थ, पिशाच मोचन, गयाकुंड, भरतकुंड, नंदीग्राम, कालिका देवी, जटाकुंड, शत्रुघन कुंड, अजित जी, आस्तीक, रमणक स्थान, घृताची कुंड, सरयू घाघरा संगम, वाराह क्षेत्र, जंबू तीर्थ, ऋषि अगस्त्य, तुंदिल, घृताची कुंड, गोकुल ग्राम, लक्ष्मी कुंड, स्वप्रेश्वरी देवी, कुटिला-वरस्रोत संगम, कुटिला-सरयू संगम महंगूपुर हैं। इन तीर्थो में शहर से सटे जनौरा गांव में गिरिजा कुंड, मंत्रेश्वर महादेव, श्री सरोवर मौजूद है। इनमें कुछ की चर्चा की जा रही है।

मंत्रेश्वर महादेव: जनौरा गांव में गिरिजा कुंड के पास ही मंत्रेश्वर महादेव का मंदिर है। इसके बारे कहा गया कि इसके समान कोई तीर्थ नहीं है। यह सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला शिवलिंग है। इसकी प्रतिष्ठा श्री राम चंद्र जी ने स्वयं की थी। श्रीरामचंद्र जी ने यहीं पर महाप्रस्थान के संबंध में एकांत में कालदेवता के साथ गुप्त मंत्रणा की थी। जिसका यह स्मृति स्थान है। स्कंद पुराण में भी इसका विवरण मिलता है। स्थानीय मान्यता है कि जनौरा को अतीत में राजा जनक जी के नाम से जनकौरा कहा जाता रहा है। लाला सीताराम की अयोध्या का इतिहास किताब में कहा गया है कि इसी स्थान पर राजा जनक अयोध्या आने पर ठहरते थे। क्योंकि सनातन धर्म में बेटी के यहां ठहरने की परंपरा नहीं है।

आसपास के अन्य तीर्थ:-जनकौरा क्षेत्र के आसपास कई अन्य तीर्थ चर्चित हैं। इनमें ढकहवा ताल, पहाड़पुर, श्रीशत्रुघ्न जी का अभिषेक स्थल आदि शामिल हैं। अयोध्या के लोगों का मानना है कि श्रीराम-रावण के युद्ध के समय मेघनाद से चलाई गई वीरघातनी शक्ति के प्रहार से लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए तो हनुमान जी औषधि पर्वत लेकर इसी मार्ग से जा रहे थे। भरत जी ने बाण प्रहार से उन्हें जमीन पर उतार लिया था, जहां भरत जी ने शांतिपूजन किया था, वही स्थान ढकहवा ताल है। फैजाबाद हवाई पट्टी के समीप यह ढकहवा ताल स्थित है। यहां पर्वत का कुछ अंश टूटकर गिरा था। अतीत में उसे पहाड़पुर के नाम से जाना जाता था, वर्तमान मे यह पहाडग़ंज गांव के रूप में चर्चित है। हनुमान जी का पांव जहां रुका था वहीं पर हनुमानगढ़ी नाका मानी जाती है।

बड़ी देवकाली:-बड़ी देवकाली मंदिर शहर में ही स्थित है। पहले यह स्थान जंगल क्षेत्र था। मंदिर में मां काली, लक्ष्मी व माता सरस्वती के विग्रह स्थापित हैं। मां देवकाली को भगवान श्रीरामचंद्र की कुलदेवी कहा जाता है। सूर्यवंशीय महराज सुदर्शन द्वारा इसे द्वापर युग में स्थापित माना जाता है। इन्हें शीतला देवी के नाम से भी जाना जाता है।

सूर्यकुंड:-सूर्यकुंड अयोध्या जिले के दर्शननगर में स्थित है। इसका पौराणिक नाम घोर्षाक कुंड है। पौराणिक कथा के मुताबिक सूर्यवंशीय घोष नामक राजा को यहीं स्नान से कुष्ठ रोग से निजात मिली थी। उनकी प्रार्थना से भगवान सूर्य यहां मूर्ति रूप में प्रतिष्ठित हुए थे। डच इतिहासकार हेंस बेकर ने अयोध्या पुस्तक में लिखा है कि प्राचीन सूर्यकुंड का यह स्थल प्राचीन काल में घोषार्क तीर्थ या घोषार्क कुंड कहलाता था। स्कंद पुराण के अनुसार उत्तम घोषार्क तीर्थ है, जो सभी पापों का नाश करता है।

पुण्यहरि कुंड:-अयोध्या के सप्तहरि तीर्थों में एक पुण्यहरि कुंड भी है। इसे पुण्य हरि तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। यह पूरा बाजार ब्लाक के खानपुर के पुनहद में स्थित है। इसी के नाम पर इस स्थान का नाम पुनहद पड़ा। गांव में मान्यता है कि श्रीराम वन से लौटने के पश्चात अयोध्या में प्रवेश के पहले सभी भाई यहीं पर मिले थे। इसीलिए इसे बंधुबाबा स्थान भी कहा जाता है। स्थानीय मान्यता है कि पुण्यहरि कुंड की मिट्टी को शरीर में लगाने व जल स्नान से त्वचा रोग एवं पीलिया से मुक्ति मिलती है।

नरकुंड:- सूर्यकुंड से अग्निकोण पर स्थित नरियावां गांव में नरकुंड स्थित है। इस कुंडमें गंदगी का साम्राज्य है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को यहां स्नान की मान्यता है। रूद्रयामल ग्रंथ के श्री अयोध्या महात्म्य में लिखा गया है कि इसके दर्शन से सभी पापों का नाश होता है। नरियावां के अवधेश सिंह कहते हैं कि बचपन में हम लोग १४ कोसी परिक्रमा को नरकुंड से उठाते थे और अचारी का सगरा पर जाकर परिक्रमार्थियों के आस्था की नदी में जुड़ जाते थे।

नारायण कुंड:- अयोध्या-प्रयागराज राजमार्ग पर मसौधा रोडवेज वर्कशाप से गौराघाट मार्ग पर लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर कछौली गांव के पास नारायण कुंड (नारायण तीर्थ) स्थित है। इससे सटा ही नारायनपुर गांव है। आसपास के लोग कहते हैं कि इसी कुंड के नाम पर इस गांव का नाम नारायणपुर पड़ा। यह कुंड भी उपेक्षित अवस्था में है। नरकुंड व नारायण कुंड में कार्तिक शुक्ल एकादशी को स्नान व दर्शन की मान्यता रही है।

रतिकुंड व कुसुमायुध कुंड:- अयोध्या के मंडलीय चिकित्सालय से कुशुमाहा गांव की ओर जाने पर दाहिनी तरफ कुसुमायुध कुंड है, जिसकी दशा भी खराब है। इसी के आसपास रतिकुंड की भी मान्यता है लेकिन अबउसका कोई शिलालेख नहीं मिलता है। श्रीअयोध्या महात्म्य के अनुसार दोनों कुंडों में जो पति-पत्नी साथ स्नान करते हैं, वे दंपत्ति रति व कामदेव की तरह सदैव सुंदर बने रहते हैं। बसंत पंचमी के दिन यहां स्नान करना सुखों की प्रप्ति मानी गई है।

योगिनी कुंड:- अयोध्या नगर से फैजाबाद मार्ग पर बेनीगंज स्थित राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान परिसर में योगिनी कुंड स्थित है लेकिन यह पूरी तरह उपेक्षित है। कुंड का अस्तित्व विुप्त हो गया है। श्री अयोध्या महात्म्य के अनुसार यहां के कुंड में ६४ योगिनियों का निवास है। इसका अवशेष एडवर्ड अयोध्या तीर्थ विवेचनी सभा का शिलालेख है। कुंड का अस्तित्व तो विलुप्त हो गया लेकिन बेनीगंज निवासी कुमुदनी पांडेय ने कहा कि मुझे तो आप लोगों से ही पता चल रहा है यह १९०२ का लगा हुआ पत्थर है। यह देवी जी हैं, जिन्हेंं हम लोग पूजते हैं। तंत्र साधना में इस पौराणिक कुंड का महत्व माना जाता है। कहा जाता है कि इस स्थान पर यक्षिणी सबसे पहले सिद्ध होती हैं।

घृताची कुंड:- यह स्थान सोहावल तहसील के हरिबंधनपुर में सरयू तट पर स्थित है। अयोध्या-लखनऊ राजमार्ग पर पूरे कीरत कांटा चौराहे से दाहिनी ओर चार किलोमीटर की दूरी पर घृताची कुंड का शिलालेख है। श्रीअयोध्या महात्म्य के अनुसार घृताची नाम की अप्सरा ने श्री वत्स ऋषि की तपस्या को भंग किया था। ऋषि ने उसे शाप दे दिया। शाप मुक्ति के लिए उसने ऋषि से प्रार्थना की तो ऋषि ने उसे सरयू स्नान का आदेश दिया। इसके बाद घृताची ने इसी पुण्य तीर्थ पर स्नान किया और शाप मुक्त हो गई। तभी से यह तीर्थ घृताची तीर्थ या घृताची कुंड कहलाता है। यहां लगने वाले मेले को घियारी का मेला कहते हैं।

निर्मली कुंड- गुप्तारघाट के पास ही निर्मली कुंड नामक तीर्थ स्थित है। श्रीअयोध्या महात्म्य में कहा गया है कि वृत्तासुर को मारकर ब्रह्म हत्या के दोष से युक्त इंद्र ने निर्मली कुंड में स्नान कर ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाई थी। वैसे तो निर्मली कुंड का अस्तित्व तकरीबन समाप्त है लेकिन शिलालेख संख्या-९५ राम जानकी मंदिर के परिसर में आज भी स्थापित है। रसिक परंपरा के संत मुकुटमणि स्वामी युगुलानन्य शरण जी महाराज ने निर्मलीकुंड तीर्थ क्षेत्र में साधना की धूनी रमाई थी।

महर्षि वाल्मीक आश्रम:- पूराबाजार ब्लाक के बबुआपुर के मजरे गोपालपुर मांझा क्षेत्र में सरयू नदी के तट पर महर्षि वाल्मीकि आश्रम नितांत एकांत में स्थित है। मंदिर में वाल्मीकि जी और हनुमान जी की मूर्तियां लगी हैं। यह मंदिर किसने बनवाया, यह किसी को पता नहीं है। थोड़ी दूर पर एक कुआं झाडिय़ों से घिरा है। यहां की विशेषता है कि मंदिर के पुजारी केवल महिला ही होती है। मंदिर की पुजारी प्रेमादासी जी बताती हैं कि मंदिर की पुजारिन अपनी शिष्याओं में से किसी एक को उत्तराधिकारी बनाती हैं। उन्होंने बताया कि यह महर्षि वाल्मीकि जी का आश्रम है। मंदिर किसने बनवाया किसी को पता नहीं। कहती हैं कि इसी आश्रम में लवकुश का जन्म हुआ था। यहां साल में दो बार श्रीमद् भागवद् कथा और भंडारा होता है। नदी की धारा यहां से दूर हो गई है। मानपारा गांव के रहने वाले भक्त रामनयन उपाध्याय कहते हैं कि यह महर्षि वाल्मीकि की तपस्थली है। रामायण काल में माता सीता यहीं पर रहती थीं। रुद्रयामल ग्रंथ के अयोध्या महात्म्य में एक प्रमुख तीर्थ के रूप में वाल्मीकि आश्रम को बताया गया है। एडवर्ड अयोध्या तीर्थ विवेचनी सभा का शिलालेख संख्या-१०८ आज भी यहां स्थित है।

महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि:-मया बाजार से तीन किलोमीटर दूर दलपतपुर गांव में महर्षि विश्वामित्र की तपोभूमि मानी जाती है। यहां के परिषदीय स्कूल के पास एक आश्रम है, जिसकी लोक मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां विश्वमामित्र ने राक्षसों से यज्ञ की रक्षा के लिए राम और लक्ष्मण को दशरथ से मांग कर लाए थे। फिलहाल मान्यता के पीछे कोई प्रामाणिक साक्ष्य तो नहीं है, फिर भी आश्रम की प्राचीनता, निर्जनता व प्राचीन मूर्तियां इस ओर संकेत करती है कि अतीत में यह एक आध्यात्मिक केंद्र रहा होगा। स्थानीय निवासी भवानीफेर सिंह अपने पुत्र विनोद के साथ यहां पर दर्शन करने आए हुए थे। ९० वर्षीय बुजुर्ग भवानीफेर सिंह ने कहा कि यही वह स्थान है, जहां पर महर्षि विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को अनेक प्रकार की विद्याएं प्रदान की थी।

ऋषि महाभरसरि सरोवर:-अयोध्या के महोवरा बाजार के पास महाभरसरि सरोवर स्थित है, जो उपेक्षित अवस्था में है। श्रीअयोध्या महात्म्य के अनुसार इसी स्थान पर श्रीहरि विष्णु व शिव मंत्रणा कर रहे थे, तभी महाभरि व दुर्भरि नामक दो भाई कमल पुष्प को कंधे पर लेकर वहां पहुंच गए और विश्राम करने लगे। इन कमल पुष्पों को देखकर भगवान शिव व भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए, दर्शन देकर वरदान दिया कि यहीं पर तुम दोनों के नाम पर दुर्भरसर और महार्भरिसर तीर्थ होंगे। इनमें स्नान करने वाले लोग मनवांछित फल प्राप्त करेंगे। मोहबरा-महाभरि शब्द का अपभ्रंश है। ब्रह्मचारी श्रीभगीरथराम जी ने अपनी पुस्तक अयोध्या दर्पण में इन दोनों पवित्र कुंडों की चर्चा की है।

वैतरणी तीर्थ:-अयोध्या-अंबेजडकरनगर राजमार्ग पर दर्शन नगर और सूर्यकुंड के बीच बाएं कुढ़ाकेशवपुर गांव के पंचायत भवन के बगल में यह तीर्थ स्थित है। श्रीअयोध्या महात्म्य के अनुसार विद्या कुंड से दक्षिण दिशा में वैतरणी तीर्थ है, जो बेहद प्रदूषित स्थिति में है। एडवर्ड अयोध्या तीर्थ विवेचनी सभा का शिलालेख संख्या-८४ यहां पर स्थित था लेकिन अब वह गायब हो चुका है। ऐसी पौराणिक मान्यता रही है कि इसमें स्नान करने वाला व्यक्ति यमलोक का दर्शन नहीं करता है लेकिन सरोवर की वर्तमान स्थिति बताती है कि अब यहां के प्रदूषित जल में भूलकर भी कोई स्नान नहीं करता होगा। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वैतरणी तीर्थ के पास ही महाकाली का स्थान व द्रोण कुंड भी है। वर्तमान में महाकाली का स्थान तो है लेकिन द्रोण कुंड का वजूद मिट चुका है।

गुप्तारघाट:-अयोध्या से पश्चिम सरयू तट पर गुप्तार घाट स्थित है। स्कंद पुराण में इसे श्रीगुप्तहरि और श्रीचक्रहरि का पीठ स्थान माना गया है। जब दैत्यों ने देवों को पराजित करके स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था तो देवताओं की प्रार्थना पर श्रीहरि विष्णु भगवान ने देवताओं को शक्ति प्रदान करने के लिए यहीं पर घोर तपस्या की थी। इसीलिए इसका नाम श्रीगुप्तहरि माना गया। एक अन्य कथा के मुताबिक इसी स्थान पर भगवान विष्णु के हाथ से छूटकर सुदर्शन चक्र गिरा था, इसलिए इसका एक नाम श्रीचक्रहरि भी है। मौके पर इस भवन के भूतल पर भगवान राम के चरण चिंह्न बने हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम मानव अवतार के रूप में सरयू नदी में डुबकी लगाने से पूर्व अपने खड़ाऊं को यहीं पर उतारा था। प्रथम तल पर स्थित मंदिर को चक्रहरि मंदिर के रूप में मान्यता है। यहां पर भगवान विष्णु की मूर्ति श्रीचक्रहरि के रूप में मौजूद है। श्रीहरि के दर्शन से सभी प्रकार के दोष व पाप शांत होते है। यहां कार्तिक मास में कल्पवास किए जाने का विधान भी है। महाकवि कालिदास ने रघुवंश सर्ग-१५ में छंद-१०१ में गुप्तारघाट की महत्ता का उल्लेख किया है। आस्ट्रिया के ली पियरे जोसेफ टिफेंथलर ने १७६६ से १७७१ के मध्य अयोध्या की यात्रा की थी। टिफेंथलर के यात्रा वृतांत हिस्टोरिकल एंड जियोग्राफिकल डिस्क्रिपशन आफ इंडिया के पृष्ठ-१४ में गुप्तारघाट का नक्शा प्रकाशित किया गया है। वर्ष १७८६ में फ्रेंच भाषा में प्रकाशित इस यात्रा विवरण के १८२ पृष्ठ पर टिफेंथलर ने लिखा है कि ‘विशाल भवन के चारों कोनों पर बुर्ज बने हैं, मध्य में खुले स्थल पर पुरायट इमली का पेड़ है, जिसके नीचे एक छिद्रनुमा स्थान है।’ इसी गड्ढेनुमा स्थान को गुप्तार कहते हैं। माना जाता है कि राम यहीं पर गुप्त हुए थे। डच इतिहासकार हेंस बेकर ने अपनी पुस्तक ‘अयोध्या’ की पृष्ठ ३१७ पर टिफेंथलर के भौगोलिक मानचित्र का उल्लेख किया है।

यमस्थल:-गुप्तार घाट से थोड़ा आगे पूर्व दिशा में श्रीयमस्थल तीर्थ है। यहां श्री यमराज का मंदिर है।

बंदी देवी (जालपा देवी):-पंचकोसी परिक्रमा मार्ग अयोध्या नगर की सीमा की शुरूआत पर बंदीदेवी का मंदिर स्थित है। मौके पर इस स्थान का नाम जालपा देवी के रूप में चर्चित है। यह स्थान त्रेताकालीन है। मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति कारागार में निरपराध निरुद्ध हो और वह भगवती बंदी देवी का निरंतर स्मरण करता रहे तो वह उसे कारागार से मुक्ति दिलाती हैं।

दशरथ समाधि स्थल (बिल्वहरिघाट):-अयोध्या से लगभग १३ किलोमीटर पूरब सरयू के कछार में जलालुद्दीन नगर ग्राम पंचायत में यह स्थल स्थित है। पुराणों के मुताबिक यह अयोध्या के महाराज दशरथ की चिताग्नि भूमि भी है। यह स्थल अब सरयू के तट से कुछ दूरी पर स्थित है। दशरथ जी के स्मारक के रूप में एक समाधि के साथ ऊंची वेदी मंदिर भी है, जिसमें पत्नियों सहित उनकी मूर्ति विराजमान है। इस स्थल का महत्व शनि के प्रभाव को क्षीण करने वाला है। पद्म पुराण के मुताबिक महाराजा दशरथ ने शनि देवता को कुछ इस तरह संतुष्ट किया था कि उनका आशीर्वाद राजा दशरथ को प्राप्त था। इसीलिए भगवान शनि से पीडि़त लोग उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए दशरथ समाधि स्थल पर आज भी पूजन-अर्चन के लिए पहुंचते हैं।

रुद्रयामल ग्रंथ के मुताबिक पूर्वकाल में बिल्व नामक एक गंधर्व नारद ऋषि के श्राप से महिष (भैंसा) शरीर को प्राप्त हो गया था। नारद जी से बताए गए उपाय के मुताबिक वह महिष रूप में इसी क्षेत्र में विचरण करता श्रीरामचंद्र जी के जन्म की प्रतीक्षा कर रहा था। श्रीराम जन्मोत्सव के बाद उसने श्रीहरि विष्णु के चतुर्भुज रूप का दर्शन किया और उसे मुक्ति प्राप्त हुई। इसी के बाद उसने अपने नाम के पीछे हरि जोडक़र बिल्वहरि मूर्ति की स्थापना की और बैकुंठ लोक को प्राप्त हो गया। डच इतिहासकार हेंस बेकर अपनी पुस्तक ‘अयोध्या’ में लिखा है कि बिल्वहरिघाट वह तीर्थ है। जिसकी गणना उन सप्तहरियों में की जा सकती है, जो विष्णुहरि, चंद्रहरि, चक्रहरि, धर्महरि, पुण्यहरि तथा गुप्तहरि हैं। हेंस बेकर उस पौराणिक मान्यता के बारे में भी जिक्र करते हैं, जिसमें बिल्व नामक गंधर्व के शापित होने से महिष (भेैंसा) के रूप में यहां अपना जीवन व्यतीत कर रहा था। हेंस बेकर इसके प्रमाण में उस चित्रांकन का हवाला भी देेते हैं, जिसमें राजा दशरथ, कौशिल्या और उनके चार पुत्रों को एक पत्थर पर उकेरा गया है। हेंस बेकर के अनुसार बिल्वहरि नाम इसलिए पड़ा होगा कि पुरातत्व के साक्ष्यों के हिसाब से यह कभी शिव उपासना का केंद्र रहा होगा। ऐसा तीर्थ जिसके हरि की आराधना बिल्व पत्रों व बिल्व फलों से की जाती है। हेंस बेकर ने बिल्वहरि में उमा-महेश्वर की प्रस्तर प्रतिमा का भी उल्लेख किया है, जो कभी इस तीर्थ में पीपल के पेड़ के पास स्थापित थी लेकिन समय की धारा में यह प्रतिमा गायब हो गए।

श्रृंगी ऋषि आश्रम:-संतति विज्ञान के सिद्ध ऋषि श्रृंगी का आश्रम अयोध्या से लगभग ४० किलोमीटर दूर पूरब में स्थित है। यह स्थल महबूबगंज बाजार से तीन किलोमीटर उत्तर सरयू तट पर शेरवाघाट ग्राम पंचायत में स्थित है। इस स्थान पर ऋषि श्रृंगी के साथ ही उनकी तपस्वी पत्नी शांता देवी की गुफाएं (तपस्थली) पिंडी रूप में बिल्कुल सरयू के मुहाने पर हैं। कहा जाता है कि लोमष ऋषि के वरदान स्वरूप श्रृंगी ऋषि को संतति विज्ञान में सिद्धी प्राप्त हुई थी। बाल्मीकि रामायण और श्रीरामचरित मानस जैसे ग्रंथों से पता चलता है कि महाराजा दशरथ के आग्रह पर गुरु वशिष्ठ ने पुत्रेष्टि यज्ञ के लिए ऋषि श्रृंगी को अयोध्या बुलवाया था। मखौड़ा पुत्रेष्टि यज्ञ और राजा दशरथ के अश्वमेघ यज्ञ के बाद श्रंगी ऋषि अपनी पत्नी शांता देवी के साथ यहीं पहुंच कर तपस्या की थी।

श्रंगी ऋषि आश्रम के पुजारी जगदीश दास बताते हैं कि वैदिक काल में यह आश्रम प्रमोद वन क्षेत्र में अवस्थित था। श्रंृगी ऋषि में क्रोधी स्वभाव के थे। उनको यहां से अयोध्या ले जाने के लिए कई बार प्रयास किया गया लेकिन वह नहीं गए, बाद में शांता देवी के आने पर उनका क्रोध थमा। यह कथा पुत्रेष्टि यज्ञ के पहले उनके यहां पहुंचने से जुड़ी है। शांता देवी को ऋषि मतंग का आशीर्वाद था कि जो भी उनको देखेगा उसका क्रोध शांत हो जाएगा। इस स्थल पर शिव मंदिर, राधाकृष्ण, दुर्गा मंदिर, राम जानकी मंदिर, शनिदेव मंदिर स्थित हैं। हेंस बेकर की अयोध्या में लिखा गया है कि बिल्वहरि घाट से और आगे यह आश्रम लगभग साढ़े आठ किलोमीटर पूरब दिशा में सरयू नदी के तट पर स्थित है। ८४ कोस की परिक्रमा के उठाने के तीसरे दिन ऋृगी ऋषि के आश्रम में जाकर परिक्रमार्थी विश्राम करते हैं।

श्रवण कुमार आश्रम:-रामायण में वर्णित पितृ भक्त श्रवण कुमार का यह स्थल अयोध्या-रायबरेली मार्ग पर बारुन बाजार से आगे खिहारन ग्राम पंचायत में स्थित है। इसके पास ही वरूण तीर्थ है। जिस वृक्ष पर श्रवण कुमार ने कांवर लटकाई थी, उसका स्मारक वृक्ष अब भी यहां मौजूद माना जाता है। अपने अंधे माता-पिता को तीर्थयात्रा कराने के दौरान इसी स्थल पर रुक कर विश्राम व तपस्या की थी। यहां स्थित जलाशय में स्नान करने से चर्मरोग पित्ती से मुक्ति मिल जाती है।

नंदीग्राम (भरतकुंड):-विश्व में भाई के प्रति भाई के ऐसे प्रेम का संदेश नंदीग्राम से ही दिया जा सकता है, जो भाई के प्रेम के आगे राजसत्ता को तुच्छ समझता हो। अयोध्या की इस पुण्य भूमि पर भरत जी ने तपस्या की थी। भातृत्व प्रेम की अद्भुत मिसाल वाला नंदीग्राम अयोध्यापुरी का अति महत्वपूर्ण स्थल है। अयोध्या राज दो भाइयों के बीच एक दूसरे को सौंपने व मिली राजसत्ता को त्याग कर भरत ने जिस जगह योग और साधना की धूनी रमाई और योगिराज भरत कहलाए। योगिराज भरत धर्म और मर्यादा की पराकाष्ठा हैं। उनका ऐसा व्यक्तित्व था कि श्रीराम जी की चरण पादुका के सहारे अयोध्या जैसी राजसत्ता का संचालन करने के साथ ही १४ साल तक वनवासी वेश में तपस्या की थी। नंदीग्राम के ईर्द-गिर्द कई तीर्थस्थल मिले, जो लोगों की श्रद्धा के केंद्र हैं। यह स्थल अयोध्या से लगभग १८ किमी दूर अयोध्या-प्रयाग राजमार्ग के बगल स्थित है। बाबा तुलसी दास ने श्रीरामचरित मानस में यहीं के लिए कहा है कि-

नंदिग्राम करि पर्ण कुटीरा, कीन्ह निवास धर्म धुर धीरा।

मांगि-मांगि आयसु करत राजकाज बहु भांति।।

वाल्मीकि रामायण सहित अन्यान्य ग्रंथों में इसके महत्व की जो विवेचना की गई है, वह नंदीग्राम की इसी मिट्टी से उत्पन्न हुई है। इस तपोभूमि की ऊर्जा यहां भाषित होती रहती है। तपस्थली पर वह भरत गुफा विद्यमान है, जहां भरत जी ने तपस्या की थी। समय के प्रभाव से गुफा में मिट्टी भरी और इसकी सफाई हुई तो एक मूर्ति भी यहां से मिली थी। तपस्थली के कुएं और पुरानी गुफा की ईंटें विक्रमादित्य काल की लखौरी ईंटें बताई जाती हैं। वह वट वृक्ष यहां विद्यमान है, जिसके नीचे बैठकर या फिर गुफा में जाकर भरत जी तपस्या किया करते थे। इसी परिसर में पुरानी भरतकूप जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। इसमें २७ तीर्थों का जल मौजूद है। परिसर में श्रीभरत मंदिर है, जहां श्रीराम चरण पादुका मौजूद है। यह विक्रमादित्य द्वारा प्रतिष्ठापित है। यहीं पर श्रीराम जी के अयोध्या लौटने पर भरत जी से प्रथम मुलाकात हुई थी। आज भी यहां कई कोस दूर के लोग विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भरतकूप का जल ले जाने के लिए पहुंचते हैं। परिसर में ही हवन कुंड, परमहंस बाबा राममंगल दास का पार्थिव स्थल, हनुमान मंदिर मौजूद हैं। इसके साथ ही नंदीग्राम के आसपास कई अन्य तीर्थस्थल भी मौजूद हैं। इनमें-

भरतकुंड:- यहां तपस्या के दौरान योगिराज भरत जिस सरोवर में स्नान करते थे, उसी का नाम भरतकुंड है। यह नंदी ग्राम परिसर में ही है।

कालिका देवी मंदिर-इस कुंड के पश्चिमी ओर हाइवे के बगल में माता कालिका देवी का प्राचीन मंदिर और शिव मंदिर है। माना जाता है कि अपनी तपस्या के दौरान भरत जी इसी काली मंदिर में पूजन-अर्चन करते थे। इसे त्रेताकालीन माना जाता है।

गयाकुंड- भरतकुंड के दक्षिण तट पर एक और कुंड इसी में समाहित है। इसे गयाकुंड कहा जाता है। इसके इतिहास के रूप में बताया गया है कि अपनी माताओं का गया तीर्थ में श्राद्ध करने के उद्देश्य से श्रीराम ने गया तीर्थ का यहां पर आवाहन किया था। इसी समय भरतकुंड के दक्षिणी तट पर जो वेदी बनाई गई, वह तब से आज तक विराजमान है। आज भी अयोध्या क्षेत्र के लोग गया तीर्थ की यात्रा यहीं से प्रारंभ करते हैं। गया श्राद्ध के बाद पितृ श्राद्ध करने यहां पहुंचते हैं।

पिशाच मोचन कुंड व मानस तीर्थ:-भरतकुंड से पूरब दिशा में बिबियापुर ग्राम पंचायत में यह कुंड स्थित है। इस कुंड की महिमा यह है कि यहां स्नान करने से पाप से मुक्ति मिलती है। इसी से सटा हत्याहरण तीर्थ है, जहां स्नान करने से हत्या जैसे पाप से मुक्ति मिलने की बात कही जाती है। यहीं पर पटधावन तीर्थ भी है, जहां वनवास से वापसी के दौरान माता सीता ने अपने वस्त्र को धोया था। ऐसा स्थानीय लोगों की मान्यता है। हालांकि यह तीनों कुंड अब पिशाच मोचन कुंड में ही समाहित दिखते हैं। पहले यहां भगवान कृष्ण की मूर्ति थी लेकिन वह गायब हो गई। क्षेत्र में इसकी महिमा को लेकर एक सूक्ति सुनी जा सकती है। पास के गांव के रहने वाले रामअंजोर वर्मा कहते हैं कि ‘न सौ काशी न एक पिचासी’ । यह पिचासी पिशाच मोचन का अपभ्रंश है।

पिशाच मोचन कुंड से पांच सौ मीटर दूरी पर मनवांछित फल देने वाला मानस तीर्थ स्थल है। आसपास के लोगों का कहना है कि अब से ५० साल पहले यह विस्तृत जलाशय था लेकिन अब यह गड्ढे के रूप में तब्दील हो गया है। मात्र प्रतीक रूप में यह तीर्थ जीवित है।

गौराघाट (चकियवापारा, तारडीह, रामचौरा):-यह स्थल रामपुरभगन से पूरब तमसा नदी के तट पर स्थित है। श्रीमद् वाल्मीकि जी ने इस तमसा तट को उत्तम तीर्थ कहा है। श्रीराम चरित मानस और दूसरे ग्रंथों के मुताबिक वनगमन के समय श्रीराम, लक्ष्मण और सीता ने तमसा तट पर ही प्रथम रात्रि विश्राम किया था। कहा गया है कि ‘प्रथम वास तमसा भयो दूसर सुरसरि तीर’ । इसी तरह भरत यात्रा में भी कहा गया कि तमसा प्रथम दिवस करि वासु। दूसर गोमति तीर निवासु।। संई तीर बसि चले विहाने। श्रंृगवेरपुर सब नियराने।।

इसी के आधार पर माना जाता है कि श्रीराम ने वन जाते समय पहली रात इसी परिधि में कहीं विश्राम किया था। इससे थोड़ी दूर पश्चिम में चकियवापारा, तारडीह, गयासपुर गांव मौजूद हैं। आसपास के लोगों के मुताबिक तारडीह व उसके मजरे पौवहान के बीच रामचौरा के नाम पर ग्राम समाज की कुछ भूमि अब भी बची हुई है। ग्रामीणों का कहना है कि इससे पहले यहां भूमि ज्यादा थी। यहीं पर श्रीराम जी के विश्राम करने के मद्देनजर स्मृति में मेला भी लगता था। बाद में यह मेला गौराघाट पर लगने लगा। गयासपुर को इस रूप में भी माना जाता है कि अयोध्या से आए श्रीराम के अनुयाईयों ने यहां से कहा था कि श्रीराम जी अयोध्या पुरी से चले गए, बाद में तारडीह और गयासपुर गांव के पास लोगों ने रूदन किया था। क्षेत्र के रहने वाले पारसनाथ यादव बताते हैं कि तमसा तट स्थित रामचौरा श्रीराम के वनगमन के समय की निशानी है। यहां पहले मेला लगता था। माण्डव्य मुनि की दूसरी तपस्थली के रूप में भी इसकी चर्चा आती है। इस प्रकार गौराघाट से तारडीह तक का यह क्षेत्र श्रीराम, लक्ष्मण व सीता के वनगमन के समय प्रथम रात्रि निवास का क्षेत्र माना जा सकता है। श्रीराम सांस्कृतिक शोध संस्थान न्यास ने भी अपने शोध में इस स्थान को चिंह्ति करते हुए रामचरण का चिंह्न लगाया है। इससे कुछ दूर पश्चिम तमसा तट पर स्थित चकियवापारा गांव है। पारसनाथ यादव बताते हैं कि श्रीराम को वन जाते समय राजा दशरथ के महामंत्री सुमंत रथ से यहां तक लाए थे। इसी गांव के आसपास भोर में श्रीराम अयोध्यावासियों को छोड़ वनगमन के लिए आगे बढ़ गए थे। यहीं आए रथों का पहिया वापस अयोध्या के लिए घूमा था, इसीलिए इसका नाम चकियाडुहिया या चकियवापारा पड़ा। इसके थोड़ी दूर पश्चिम की ओर तारडीह गांव है। यहां कम्हरिया बाबा की तपस्थली भी है। यह एक सिद्ध पुरुष थे। सिद्ध पुरुषों का वास महत्वपूर्ण स्थलों पर ही होता है। यह स्थल भी तमसा तट पर स्थित है। स्थानीय भौगोलिक स्थिति और यहां जनश्रुतियों, बूढ़े-बुजुर्गों की पीढियों से चली आ रहीं यादें कहती हैं कि तारडीह गांव का नाम डाह अर्थात रूदन का अपभ्रंश है। इन लोगों का मानना है कि श्रीराम जी के बिना अयोध्यावासियों को बताए वनगमन के लिए आगे बढ़ जाने के बाद अयोध्यावासियों ने जो डाह (मन की विह्वलता) और रूदन इसी स्थल पर किया था। इसी गांव से सटे स्थल पर कम्हरिया बाबा ने तपस्या भी की। तारडीह और इसके पूरब पौवाहन के बीच स्थित रामचौरा को विश्राम स्थल के रूप में यहां चर्चित माना जाता है। चकियवापारा गांव में एक शिव मंदिर स्थित है लेकिन तारडीह, रामचौरा में ऐसा कोई प्रतीक चिंह्न नहीं है जिससे उस करुणामयी दृश्य की अनुभूति की जा सके।

सूर्यकुंड (रामपुरभगन):-रामपुरभगन बाजार के समीप यह ऐतिहासिक स्थल है। यहां प्राचीन समय में श्रीभगन राम जी नामक प्रसिद्ध महापुरुष भी हुए थे। ८४कोसी परिक्रमार्थियों का यह पड़ाव स्थल भी है। यह स्थल ग्राम पंचायत नेतवारी चतुरपुर में पड़ता है। ऐसी मान्यता है कि वनगमन जाते समय पहली रात के बाद भ्रमण करते हुए श्रीराम जी यहां तक पहुंचे थे। उन्होंने यहां भगवान सूर्य को अघ्र्य दिया था। बाजार के रहने वाले कमलेश गुप्ता का कहना है कि इसके बाद राजा दर्शन सिंह ने इस स्थान पर खुदाई कराई तो हांड़ा की मांद निकल आई। वह इस तरह उधराई कि उन्होंने यहां खुदाई बंद की और दर्शन नगर में प्रेरित होकर खुदाई कराई। हांलाकि ८४ कोस के चिंहिंत १४८ तीर्थ स्थलों में इसका नाम शामिल नहीं है।

दुग्धेश्वर कुंड (दराबगंज):-अयोध्या-प्रयागराज राजमार्ग पर दराबगंज में यह ऐतिहासिक स्थल स्थित है। स्कंद पुराण के पूर्वोक्त खंड में बताया गया है कि श्रीराम के पूर्वज महाराज रघु का जन्म यहां स्थापित दुग्धेश्वर महादेव की कृपा से हुआ था। एक अन्य कथा के मुताबिक वनवास काल बिताकर वापसी के समय श्रीराम ने यहां देवों की उपासना की थी। त्रेतायुग में मान्यता थी कि कोई व्यक्ति १२ वर्षों के पश्चात अपने घर आए तो घर से दूर स्थान पर स्थित देवोपासना करके ही घर में प्रवेश करे। इसका अनुसरण करते हुए १४ साल के बाद श्रीराम अयोध्या आए तो उन्होंने इसी स्थान पर श्रीभैरव जी की उपासना किया था। यह उपासना गुरु वशिष्ठ ने यहां कराई थी। उपासना के दौरान ही उनकी नंदिनी गौ भी वहां पर पधारी। श्रीराम जी का दर्शन करते ही वत्सला गौ के स्तनों से दुग्ध धारा निकलने लगी। आशुतोष भगवान शंकर उसी दुग्धधारा में से प्रकट हुए। इसीलिए श्रीराम जी ने उनकी प्रतिष्ठा यहां दुग्धेश्वर महादेव के रूप में की। श्रीराम जी के साथ आए विभिन्न देवी-देवताओं माता सीता, हनुमान जी, विभीषण, सुग्रीव आदि के नाम पर छह कुंडों की स्थापना की गई थी लेकिन वर्तमान में केवल श्रीरामकुंड और दुग्धेश्वर कुंड ही सुरक्षित हैं। अन्य काल के गाल में समा गए। इस स्थल की आध्यात्मिक ऊर्जा यहां पहुंचने पर स्वत: अनुभूति की जा सकती है।

जटाकुंड़:-नंदीग्राम से पश्चिम भदरसा की ओर जाने वाली सडक़ के उत्तर दिशा में यह स्थान स्थित है। यहां अब भी खंडित मूर्तियों के अवशेष वीरान झाड़ी में काफी दिनों तक पड़े रहे। इनको लेकर आसपास के लोगों में कई तरह की किंवदंतियां भी प्रचलित हैं। यहा के लोग बताते हैं कि यह खंडित मूर्ति को इधर-उधर करने के बाद भी यह स्वत: अपने नियत स्थान पर रात्रि में पहुंच जाती हैं। यहां अक्सर एक विषधर को घूमते हुए भी देखा जाता है। इस स्थल की मान्यता है कि श्रीराम जी के १४ वर्ष के वनवास के बाद वापसी के समय यहीं पर श्रीराम और भरत जी की जटाएं विवराई गई थीं। भरत जी की जटा श्रीराम जी ने स्वयं अपने हाथ से निकाल कर स्नान कराया और स्वयं भी स्नान किया था। इसके बारे में संत तुलसी दास जी ने कहा है कि ‘पुनि करुणानिधि भरत हकारे, निज कर जटा राम निरवारे।’ यह स्थल श्रीराम और भरत जी से जुड़ा है। अब भी इस घने जंगल में कभी-कभार दूरदराज से आने वाले श्रद्धालु घंटों रुक कर पूजन-अर्चन करते हैं।

शत्रुघ्न कुंड:-भरतकुंड, जटाकुंड से पश्चिम दिशा में रेलवे लाइन पार करने के बाद दोस्तपुर गांव के निकट श्रीशत्रुघ्न कुंड का वृहद जलाशय दिखाई पड़ता है। ग्रंथों के मुताबिक राम वनवास के समय उनके सबसे छोटे अनुज शत्रुघ्न जी ने यहां तपस्या की थी। वर्तमान समय में यहां एक दुर्गा मंदिर के साथ एक अन्य मंदिर भी मौजूद है। वर्ष में कई बार अयोध्या सहित अन्यान्य स्थानों के लोग यहां आते हैं।

रामकुंड पुष्पनगर (पुंहपी):-१४ वर्ष के वनवास और लंका विजय के बाद श्रीराम, सीता, लक्ष्मण और दूसरे मित्रों के साथ पुष्पक विमान से अयोध्या आ रहे थे। यह वही स्थान है जहां सबसे पहले अयोध्या के साथ आसपास के लोगों ने आकाश मार्ग से आ रहे पुष्पक विमान को देखा था। यहीं के लिए बाबा तुलसीदास ने लिखा है ‘आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान। नगर निकट प्रेरेउ उतरेउ भूमि विमान।। उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहिं तुम्ह कुबेर पहिं जाहु। प्रेरित राम चलेउ सो हरस विरह अति ताहु।।’ बाद में इसी पुष्पनगर का अपभ्रंश पुंहपी गांव के रूप में वजूद में आया। यह गांव अयोध्या-प्रयागराज राष्ट्रीय राजमार्ग पर जलालपुर चौराहे से शाहगंज मार्ग पर कुछ दूर पर स्थित है। यहां एक तालाब भी है लेकिन यह स्थान ८४ कोस के तीर्थो में वर्णित नहीं है। यह स्थान जटाकुंड और शत्रुघन कुंड के मध्य माना जाता है। गौरतलब है कि दोनों कुंड ८४ कोस तीर्थ स्थलों में वर्णित है।

श्रीरमणक आश्रम:-ऋषि रमणक के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं होती लेकिन रुद्रायमल ग्रंथ के अयोध्या महात्म्य में वर्णित है कि रमणक स्थान के दर्शन से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं। लोक मान्यता है कि ऋषि की तपस्या से ही तिलोदकी गंगा (त्रिलोचना) नदी का आविर्भाव हुआ। तिलोदकी का उद्गम स्थल और ऋषि रमणक की तपस्थली सोहावल बाजार से तीन किलोमीटर दक्षिण पंडितपुर गांव के पास स्थित है। यहीं तिलोदकी गंगा का उद्गम स्थल माना जाता है। यह नदी जिले के विभिन्न क्षेत्रों से होते हुए अयोध्या स्थित यज्ञवेदी के पूरब सरयू से संगम करती थी। पंडितपुर और यज्ञवेदी पर भादौ मास की अमावस्या तिथि पर आज भी मेला लगता है। इस तिथि को कुशोदपाटिनी अमावस्या भी कहते हैं। इस तिथि पर अभी कुछ वर्षों पूर्व तक तिलोदकी के घाटों पर लोग स्नान-दान करके पुण्य लाभ अर्जित करते थे। यहां पर एक नवीन देवी मंदिर का निर्माण भी हुआ है।

आस्तीक आश्रम व ऋषि यमदग्नि की तपस्थली:-आस्तीक आश्रम ८४कोसी परिक्रमा का पड़ाव स्थल है। इसे ऋषि आस्तीक के नाम पर ही आस्तीकन कहा जाता है जो कुचेरा के पास है। यहां ऋषि आस्तीक का जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मंदिर मौजूद है। इससे सटे हुए कुंड को जन्मेजय कुंड कहते हैं। इस स्थल की महत्ता लोक प्रचलित है कि नाग पंचमी के दिन यहां पूजन करने से नाग भय से मुक्ति मिलती है। लगभग एक किलोमीटर में फैले इस क्षेत्र के दक्षिणी छोर पर ऊंचे टीले को यहां के लोग ऋषि यमदग्नि की तपस्थली मानते है जोखंडहर के रूप में मौजूद है। यहां भगवान शंकर का एक प्राचीन मंदिर है, जिसके सामने पुरानी ईंटों का एक टीला विद्यमान है। यह बाउली या फिर हवनकुंड जैसा प्रतीत होता है। इसे लोग बाबा कुट्टी के नाम से पुकारते हंै।

आस्तीक और यमदग्नि आश्रम के बीच एक ऊंची भूमि है। इसके समीप ही एक झील सदृश्य आकृति है। यह ऊंची भूमि किसी सभ्यता के जमीन में दबे होने का संकेत करती है, हालांकि यह शोध का विषय है। यमदग्नि आश्रम के दक्षिण पूर्व सटे स्थान पर तालाब है, इसका जीर्णोद्धार ग्राम पंचायत से कराए जाते समय पुरानी ईटों की सीढिय़ा नीचे की ओर जाती हुई दिखाई पड़ी। आसपास के खुदाई करने वाले लोगों का कहना है कि तालाब से ऊंचाई पर स्थित मंदिर तक के लिए पक्की सीढिय़ां खुदाई के दौरान पाई गई। यहां की ईंटें बिल्कुल पतली और पुरानी दिखती हैं। इससे सटे पूर्वी छोर पर श्मशान भूमि भी है। इसे प्राचीन अयोध्या का दक्षिण द्वार भी कहते है।

जन्मेजय कुंड:-अमानीगंज क्षेत्र में सिडसिड़ गांव के पास स्थित इस स्थल को भी आस्तीक ऋषि की तपस्थली के रूप में मान्यता प्राप्त है। श्रीमदभागवत् कथा और आसपास के लोगों के मुताबिक राजा परीक्षित ने नाग यज्ञ का संकल्प लिया था। नाग यज्ञ के दौरान मंत्रो में बंधे नागराज यज्ञ में सिंहासन सहित खिंचे चले आ रहे थे। इसी दौरान ऋषि आस्तीक ने नागराज की रक्षा की थी। इसलिए ऋषि की तपस्या स्थली को आज भी श्रद्धा की दृष्टि से स्वीकार किया जाता है। यही कारण है कि सर्प भय से मुक्ति के लिए आस्तीक ऋषि की पूजा-अर्चना करने लोग यहां पहुंचते हैं। इसके पास ही एक झील है। किंवदंतियों में इसी से सटा जन्मेजय कुंड रहा होगा। यहां ऋषि आस्तीक और भगवान भोले शंकर का मंदिर काफी ऊंचाई पर स्थित है।

ऋषि च्यवन आश्रम:-ऋषि च्यवन का आश्रम अयोध्या जिले के ड्योढ़ी बाजार से दक्षिण तमसा तट पर कीन्हूंपुर मजरे राजा का पुरवा गांव के पास स्थित है। च्यवन ऋषि आश्रम पर उनकी तपस्या भूमि के स्थान पर एक चबूतरा बना हुआ है। च्यवन ऋषि आश्रम अत्यंत सुरम्य, आकर्षक और ऊर्जावान है। रुद्रयामल के साथ सुखसागर ग्रंथ में इस स्थान का वर्णन किया गया है। सुखसागर के मुताबिक अयोध्या के राजा शर्याति शिकार के लिए प्रमोद वन क्षेत्र में आए थे। इस स्थल पर पिछले आठ साल से फूस की मड़ई में तपस्या करने वाले बाबा मनोरथ दास बताते हैं कि राजा शर्याति अपनी पुत्री और सेना के साथ शिकार पर यहां आए थे। उस दौरान इसी स्थल पर ऋषि च्यवन तपस्यारत थे। उनका शरीर मिट्टी का ढूह बन गया था। आंखें केवल चमक रही थीं। पुत्री सुकन्या घूमते-घूमते आकर्षण वश चमकती आंखों को तिनके से कोंच दिया, उससे आंखों से रक्त बहने लगा तो वह डर कर भाग गई। इसके बाद राजा शर्याति की यहां आई पूरी फौज बीमार पड़ गई, कारण खोजा तो साथ में रहे ज्योतिषी ने बताया कि यह तपभूमि है, किसी अनहोनी के कारण यह घटना घटित हुई है। इस पर राजा शर्याति ने खोज की तो ऋषि का ढूह शरीर और रक्त बहती आंखें दिखी तो वह क्रोधित हो उन्होंने इस कृत्य को करने वाले को मृत्यु दंड देने की घोषणा कर डाली। सबसे पूछा गया तो भयभीत सुकन्या ने अंत में स्वीकर किया कि यह कृत्य उसने भूलवश किया है। इक्ष्वाकु वंशी राजा ने उसे दंड स्वरूप ऋषि की सेवा करने के लिए छोड़ दिया। बेटी को छोडक़र वापस चले गए। १४ साल तक सुकन्या उनकी सेवा में निमग्न रही। इसके बाद ऋषि को चेतना आई तो उन्होंने कन्या से जानकारी की। उसकी तपस्या से अभिभूत सूर्यपुत्र देव वैद्य अश्विनी कुमार अपने भाई के साथ यहां आए। उन्होंने सुकन्या से बूढ़े ऋषि च्यवन के बजाय पाणिग्रहण की याचना की लेकिन सुकन्या ने उनकी याचना को स्वीकार नहीं किया। इससे वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने ऋषि च्यवन को सुकन्या के लायक यौवन प्रदान करने के लिए पास के ही सरोवर में विश्व की समस्त वानस्पतिक औषधियों को एकत्र किया। इसमें स्नान कराकर ऋषि च्यवन को अपने समान नया यौवन प्रदान कर वरमाला डालने के लिए सुकन्या को कहा। बाबा मनोरथ दास बताते हैं कि बगल के सरोवर में वानस्पतिक औषधियां डाली गई ऋषि च्यवन स्नान करके निकले तो अश्विनी कुमार जैसे ही थे। इससे सुकन्या असमंजस में पड़ी लेकिन देवता और मानव में अंतर के लिए पृथ्वी पर पड़े पांव के जरिए ऋषि च्यवन को पहचान लिया क्योंकि देवता बगैर पृथ्वी पर पैर रखे ही चलते हैं। नया यौवन पाने के बाद ऋषि ने तपबल से सुकन्या को वह सारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराई जो एक राजा से भी अधिक धनवान से मिल सकती है।

गौरतलब है कि ऋषि च्यवन का एक और आश्रम गोंडा जनपद में सोहागपुर ग्राम में है। यहां उन्होंने चमदई (चमनी) नदी के तट पर तपस्या की थी। पद्म पुराण में भी च्यवन ऋषि को लेकर एक सुंदर कथा वर्णित है। रामाश्वामेघ यज्ञ के परिप्रेक्ष्य में दिग्विजय की यात्रा पर निकले शत्रुघ्न जी से च्च्यवन ऋषि की मुलाकात हुई। इसके बाद च्यवन ऋषि अपने परिवार के साथ ही श्रीराम का दर्शन करने के लिए पैदल निकल पड़े। कहा गया है कि उनकों पैदल आता जान श्रीहनुमान जी ने वहां पहुंच पूरे परिवार को अपने कंधे पर बैठाकर दर्शन के लिए श्रीराम के पास अयोध्या ले आए। नवयौवन देने वाले च्यवनप्राश नामक औषधि इन्हीं ऋषि के नाम से मानी जाती है।

श्रीगौतम आश्रम:- महामुनि गौतम परा विज्ञान के जानकार थे। गौतम का आश्रम रुदौली बाजार के पश्चिम सिरे पर स्थित है। यहां एक नवीन श्रीशिव मंदिर के साथ अन्य देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इसी से सटी श्मशान भूमि भी है। श्मशान भूमि के बगल ही विशाल सरोवर है। यहां शिलालेख में तमसा तट भी लिखा गया है। माना जाता है कि महामुनि गौतम तमसा के तट पर ही तपस्या करते थे। वर्तमान समय में तमसा यहां से कुछ दूर दक्षिण हट कर बहने लगीं हैं।

ऋषि माण्डव्य आश्रम व तमसोत्पत्ति स्थान:- अयोध्या लखनऊ हाईवे पर मवई चौराहे से दक्षिण बसौढ़ी बाजार के पास लखनीपुर गांव में ऋषि माण्डव्य का सुरम्य स्थल मौजूद है। लोक कल्याण के निमित्त यहां तपस्या करने वाले ऋषि माण्डव्य की तपस्या से ही तमसा नदी की उत्पत्ति हुई। यह स्थल तमसा नदी का उद्गम स्थल है। इस स्थल पर प्रतीक स्वरूप हनुमान जी का मंदिर और शिवलिंग स्थापित है। यहां के पुजारी बाबा रामदास बताते हैं कि ऋषि माण्डव्य तमसा तट के पास घने जंगल में निवास करके तपस्या करते थे। उनकी तपस्या से ही तमसा नदी की उत्पत्ति हुई है। यहां के शिलालेख पर प्रमोद वन भी दर्ज है।

ऋषि पाराशर आश्रम:- अयोध्या-लखनऊ हाइवे पर कांटा चौराहे से दक्षिण में दो किलोमीटर दूर स्थित देवराकोट ग्राम में यह स्थल स्थित है। लोक मान्यता है कि यह पाराशर ऋषि की जन्मभूमि है। स्थानीय स्तर पर लोग इसे बाबा कुट्टी के नाम से जानते हैं। इस स्थान पर राम जानकी मंदिर के साथ ही भगवान शिव का प्राचीन दिव्य शिवलिंग स्थापित है। इसके पास में ही झंडहवा बाबा का स्थल है। यह पहले विशुद्ध जंगल रहा होगा। अब भी इसके आसपास कई एकड़ जमीन जंगल और बाग के रूप में पड़ी हुई है।

मखभूमि (मखौड़ा):-अयोध्या से लगभग २१, २२ किलोमीटर सरयू पार उत्तर की ओर आकर्षक मनोरमा नदी के तट पर मखभूमि (मखौड़ा) नामक यह स्थल बस्ती जनपद में मौजूद है। अयोध्या के महाराजा दशरथ के चारों पुत्रों के जन्म का योग और शुभारंभ यहीं से होता है। इसलिए इस स्थल की महत्ता अधिक है। अयोध्या के चक्रवर्ती महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ का शुभारंभ यहीं कराया था, जिसके बाद श्रीहरि विष्णु ने रामलला के रूप में अवतार लिया था। इस भूमि पर एक साथ आठ ब्रह्मर्षि की उपस्थिति बताई गई है। धार्मिक ग्रंथों में इस स्थान की महत्ता को वर्णित किया गया है। इस ऊर्जा भूमि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यज्ञ के दौरान श्रीगुरु वशिष्ठ और महर्षि वामदेव जी माननीय पुरोहित थे, जिनका निर्णय सर्वोपरि माना जाता था। इसके अलावा जिन ब्रह्मर्षियों की यहां उस दौरान उपस्थिति आर्षग्रंथों में बताई गई है उनमें सुयज्ञ, जाबालि, काश्यप, गौतम, दीर्घायु मार्कण्डेय, विप्रवर कात्यापन के अलावा पूरे परिवार के साथ स्वयं श्रंृगी ऋषि मौजूद थे। यह सभी उस समय विश्व के महामान्य साधक व वैज्ञानिक थे और ये ही अयोध्या के सभी यज्ञों में निश्चित रूप से पुरोहित पद पर होते थे। कहा गया है कि यह सभी मंत्र तत्वज्ञ थे। स्वयं ऋषि श्रंृगी जहां रात्रि में विश्राम करते थे। वह स्थान यहां से कुछ दूर श्रंृगी नारी नाम से वर्तमान में प्रसिद्ध है। स्वाभाविक है कि इतने बड़े पुत्रेष्टि यज्ञ में भगवान आशुतोष शंकर के साथ ही सभी देवी-देवताओं को आवाहित किया गया रहा होगा। यह सभी देवता प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में यहां यज्ञ के दौरान उपस्थित रहे होंगे। इसके अलावा भी अनगिनत ऋषि, महर्षि, मुनि, देव, गंधर्व आदि यज्ञ के दौरान यहां रहे होंगे। यह भूमि इनकी उपस्थिति से ही पवित्र हो चुकी है। इसी यज्ञ के बाद उससे निकले मख से श्रीराम सहित चारों भाईयों का जन्म हुआ। अयोध्या दर्पण में कहा गया है कि यहां महाराज श्रीदशरथ जी ने अनेक अश्वमेधादि यज्ञों को करके श्रीरामभद्र आदि पुत्र रत्नों को प्राप्त किया था। वहां पर समस्त देव, यक्ष, नाग, किन्नरों समेत इंद्र और समपूर्ण तीर्थ उत्सव पूर्वक स्नान करते हैं, जो मनुष्य इस तीर्थ में स्नान करता है। उसकी शुभकामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं। यह ८४ कोसी परिक्रमा स्थल का शुभारंभ स्थान है। बैशाख कृष्ण पक्ष को परिक्रमा का श्रीगणेश यहीं से किया जाता है। यहां पुराने मंदिर में प्रतिष्ठित श्रीराम, माता सीता, लक्ष्मण की मूर्तियां विद्यमान हैं। मंदिर से सटकर ही पुण्य सलिला मनोरमा बहती हैं, जिसकी आर्षग्रंथों में चर्चा आती है। यहां के पुजारी सिद्धू दास बताते हैं कि चैत्र रामनवमी को अब भी हजारों की संख्या में आसपास के श्रद्धालु यहां पुण्य लाभ के लिए आते हैं।

रामरेखा नदी:-यह तीर्थस्थल बस्ती जिले में के छावनी क्षेत्र के अमोढ़ा गांव में स्थित है। यहां श्रीराम जी का मंदिर और भगवान शिव का शिवलिंग स्थापित है। रामरेखा नदी इसी मंदिर से सटकर प्रवाहित होती है। यहां पहुंचकर स्थल की ऊर्जा को महसूस किया जा सकता है। ग्रंथों में कहा गया है कि जनकपुर में विवाह के पश्चात शुद्ध लग्न में गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से अयोध्या के लोग बारात वापसी में निकले थे। यात्रा में शामिल लोगों ने इसी स्थान पर विश्राम किया। गुरूदेव की आज्ञा से यहीं पर उनकी प्यास शांत करने के लिए श्रीरामचंद्र जी ने अपने धनुष से एक रेखा खींच दी थी। उस स्थान से जो दिव्य जल प्रवाहित हुआ उसी का नाम रामरेखा नदी के नमाम पर रामरेखा तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ८४ कोसी परिक्रमा का यह प्रथम विश्राम स्थान है।

वाराह (सूकर) क्षेत्र:-यह स्थान गोंडा जिले के परसपुर से लगभग १८ किमी दक्षिण वाराह क्षेत्र (सूकर) के रूप में चर्चित है। अयोध्या दर्पण की कथा के मुताबिक इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिए वाराह रूप धारण कर हिरण्याक्ष का वध किया और पुन: पृथ्वी को यथास्थान में स्थापित किया। ग्रंथों में कहा गया है कि जब हिरण्याक्ष नामक असुर ने अपनी तपस्या के बल पर शक्ति प्राप्त कर ली और माता पृथ्वी को अपने कब्जे में ले लिया और उसे छुपा दिया। पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मच गई। हिरण्याक्ष वाराह क्षेत्र के संगम पर एक स्थान पर छिपकर रहने लगा तो भगवान श्रीहरि विष्णु वाराह (सूकर) रूप में अवतारित हुए और असुर हिरण्याक्ष जहां छिपा हुआ था वहां पहुंच कर घोर संघर्ष किया। अंत में उन्होंने हिरण्याक्ष का वध कर माता पृथ्वी को मुक्त कराया। यहीं पर भगवान वाराह का दिव्य मंदिर है। इसमें भगवान वाराह के साथ ही अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। इसके पहले मंदिर में यहां सोने की भगवान की मूर्ति स्थापित थी।

यहां के लोग बतातें हैं कि वर्तमान में भगवान वाराह का जो मंदिर है। यह दो नदियों सरयू-घाघरा का संगम स्थल का क्षेत्र है। भगवान वाराह के मंदिर में रहने वाले विश्वनाथ मिश्र का कहना है कि वह स्थान यहां से थोड़ी दूर पर असवा (मल्लान) गांव के रूप में विकसित है, जहां हिरण्याक्ष ने माता पृथ्वी को छिपाया था। यहीं पर वह मैले के घर में रहता था, जिससे उस तक कोई देवता न पहुंच सके लेकिन सूकर के रूप में अवतरित हो भगवान श्रीहरि विष्णु ने वहां पहुंच कर युद्ध किया और उसका वध किया। हलांकि वर्तमान समय में दोनों ओर से बंधे का निर्माण होने से सरयू का जल भगवान वाराह के मंदिर तक नहीं पहुंच पाता। वह संगम स्थल अब यहां से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर चंदापुर गांव के पास मौजूद है। इस संगम स्थल के बारे में आर्षग्रंथों में कहा गया है कि जब हिरण्याक्ष का वध कर श्रीहरि विष्णु ने माता पृथ्वी का उद्धार किया तो उस समय संपूर्ण देव मंडल ने उनका यहीं पर यशोगान किया था। उसी समय भगवान से देवों ने वर प्राप्त किया था कि इस संगम में स्नान करने वालों को शत्रुओं से कभी भय न हो, उन्हें कभी गर्भ में न आना पड़े, मनुष्यों के सभी मनोरथ सिद्ध हों। इसके बाद मुनि गण और देवगण यहां पर निवास करने लगे। भगवान वाराह का मंदिर ८४ कोसी परिक्रमा का पड़ाव स्थल भी है।

भगवान वाराह के मंदिर से महज कुछ कदम की दूरी पर बाबा तुलसी दास के गुरु बाबा नरहरि दास की कुटिया मंदिर की शक्ल में है। बाबा तुलसी दास ने रामचरित मानस में लिखा है कि ‘मैं पुनि निज गुरुसन सुनी कथा सु सूकर खेत’। यह वाक्य इस वाराह क्षेत्र का बोधक हैं। आजकल यहां पसका गांव है। नरहरि दास की कुटिया में बहुत पुराना शंख, कमंडल के साथ ही हाथ से लिखी गई रामचरित मानस की पांडुलिपि की प्रति भी रखी गई है। बाबा नरहरि दास के वंशज का कहना है कि पुराने शंख की ध्वनि पांच किमी दूर तक सुनाई पड़ती थी। अयोध्या दर्पण में कहा गया है कि यहां से चार कोस की दूरी पर उत्तरी भवानी के नाम से प्रसिद्ध श्रीवारही देवी हैं।

महर्षि पाराशर मुनि आश्रम:-तरबगंज तहसील क्षेत्र के परास गांव में सरयू जी के कछार में महर्षि पाराशर मुनि का आश्रम है। अयोध्या से इसकी दूरी लगभग ५० किलोमीटर है। ग्रंथों में वर्णित है कि पाराशर मुनि महर्षि वशिष्ठ जी के एक मात्र पौत्र थे। इन्हीं से यौगिक क्रिया द्वारा श्रीहरि विष्णु जी के १७वें अवतार व्यास जी का जन्म हुआ था। गांव के बीच से होते हुए किनारे पर स्थित इस आश्रम में मुनि पाराशर की पत्थर की मूर्ति स्थापित है। अब तक यहां मंदिर से दो बार मूर्ति की चोरी हो चुकी है। मंदिर के पश्चिम में पाराशर कुंड अब अपना अस्तित्व खो रहा है। यहां के लोगों का कहना है कि पहले जंगल में था लेकिन अब गांव की बस्ती से सट गया है। इसी मंदिर में एक ऐसी मूर्ति है जो तीन खंड में टूटी है। घुटने से नीचे का भाग जमीन में वैसे लगा है। शेष विकृत अंग पड़े हैं। यह सैंकड़ों साल पुरानी बताई जाती है।

श्री गोकुला तीर्थ:- गोंडा जिले के नवाबगंज के दत्तनगर साखीपुर से थोड़ा पश्चिम में यह रमणीय स्थान है। यह सरयू का मांझा क्षेत्र है। गोकुला गांव एक तीर्थ है। यहां पर जो कुंड है इसका नाम श्रीकुंड है लेकिन लोग इसे लक्ष्मी कुंड भी कहते हैं। श्रीलक्ष्मी जी का यह महापीठ है। इसीलिए यह लक्ष्मी क्षेत्र भी कहा जाता है। मंदिर के प्रांगण में महालक्ष्मी से संबंधित देवियों की पिंडियां स्थापित हैं। श्रीकुंड में पितृ तर्पण से पितरों को सद्गति प्राप्त होती है। माना जाता है कि यहां पर श्रीलक्ष्मी जी की मंत्र साधना सिद्ध होती है। नवरात्रि की अष्टमी तिथि को यहां पूजन की विशेष महिमा है।

श्रीस्वप्नेश्वरी:- यह स्थान श्रीकुंड से लगभग एक किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। क्षेत्र में ही बहुत कम लोग इस देवी स्थान के बारे में जानते हैं। श्रीस्वप्नेश्वरी देवी की महिमा यह है कि कोई भी मनुष्य इनकी भक्ति भाव से पूजा करता है और अपने शुभ-अशुभ को जानने की इच्छा करता है तो रात्रि की स्वप्न अवस्था में देवी जी भक्त को सबकुछ बता देती है।

श्रीकुटिला वरस्रोत संगम:- इसे चौघडिय़ा घाट के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान स्वप्नेश्वरी देवी से पूरब दिशा में वरस्रोत नारा में स्थित है। आसपास के लोगों का कहना है कि पहले यहां वरस्रोत और कुटिला (टेढ़ी नदी) का संगम था लेकिन अब यहां पर टेढ़ी नदी ही प्रवाहित होती हैं। यहां पर हनुमान जी का एक मंदिर भी है। इस संगम स्थान पर स्नान करने से समस्त पापों का नाश होता है। मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को यहां पर श्रद्धापूर्वक स्नान-दान से समस्त दुष्कर्मों का नाश होता है और देवलोक की प्राप्ति होती है।

श्रीसरयू कुटिला संगम:- यह स्थान श्रीकपिल मुनि मंदिर के नाम से नवाबगंज के समीप महंगूपुर गांव में प्रसिद्ध है। कपिल मुनि को भी भगवान विष्णु के २४ अवतारों में से एक माना जाता है। यहां सरयू और कुटिला नामक दो नदियों का संगम स्थल है। कपिलमुनि मंदिर के निकट रहने वाले नवनीत पांडेय बताते हैं कि सैंकड़ों साल पहले गांव के ही एक व्यक्ति को बार-बार रात्रि में यह स्वरप्न आ रहा था कि संगम के जल में मूर्ति है। उसे उठाकर लाओ स्थापित कराओ। इसके बाद उस व्यक्ति ने संगम स्थल के जल से स्वप्न में बताई गई शालिग्राम भगवान की मूर्ति प्राप्त कर ली, जिसे श्रद्धालुओं ने श्रीगंगासागर के कपिल मुनि के रूप में मान्यता दी। श्रीरुद्रयामल अयोध्या महात्म्य के अध्याय-२८ में इस संगम की एक कथा बताई गई है। किसी चंपकपुर में एक ब्राह्मण थे। उन्होंने अपने एक शिष्य के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया था। एक दिन शिष्य रात्रि में अध्ययन कर रहा था। उसकी पत्नी के गर्भ में पल रहे बालक ने गर्भ से ही अपने पिता को उपदेश दिया और कहा कि मध्य रात्रि के समय की विद्या निष्फल हो जाती है। पिता ने अति नाराजगी में उसे श्राप दे दिया। जन्म के बाद वह बालक आठ अंगों से टेढ़ा पैदा हुआ लेकिन वह तेजस्वी के साथ तपस्वी था। यह ऋषि अष्टावक्र थे।

इस संगम के महात्म्य के बारे में कहा गया है कि मान्धाता नाम के राजा की पुत्रियां यमुना में स्नान करने के लिए गई थीं। अष्टावक्र जी जल में डूबकर यमुना नदी में तपस्या कर रहे थे। राजा की कन्याओं ने यह दृश्य देख तपस्वी को अपने वर के रूप में चुन लिया, लेकिन जब अष्टावक्र जल से बाहर आए तो कन्याओं ने यह रूप देखकर इसका तिरस्कार कर दिया। और अपने घर जाने लगीं। मुनि ने उन सबकों भी टेढ़े-मेढ़े शरीर वाली हो जाने का श्राप दे दिया। राजा मान्धाता ने यह जानकर कन्याओं को अयोध्या में सरयू स्नान करने के लिए कहा। वह यही स्थान है जिस संगम में उन कन्याओं ने स्नान कर पुन: सर्वांग सुंदर शरीर को प्राप्त किया था। अयोध्या दर्पण में कहा गया है कि उन्हीं कन्याओं के वंश द्वारा कान्य कुब्ज देश विख्यात बताया गया है।

त्रिमुहानी:- महंगूपुर से दक्षिण में पटपडग़ंज में त्रिमुहानी तीर्थ है। यहां पर वरस्रोत, भगला और कुटिला इन तीनों नदियों का संगम माना जाता है। यहां के लोगों का कहना है कि कुटिला में दोनों का विलय हो जाता है। अयोध्या की भांति यहां भी कार्तिक पूर्णिमा व रामनवमी का पर्व मनाया जाता है।

जबूजंतीर्थ-यह तीर्थ स्थल गोंडा जिले के परसरपुर, भौरीगंज क्षेत्र के सरचंडी गांव में सरयू के तट पर स्थित है। यह ८४ कोसी परिक्रमा का विश्राम स्थल भी है। वाराह क्षेत्र से इसकी दूरी लगभग आठ कोस मानी जाती है। इस तीर्थ में तीन स्थान समाहित हैं। जंबूतीर्थ, ऋषि अगस्त्य और तुंिदल आश्रम। यहां एक प्राचीन श्री राम का मंदिर है। इसके साथ ही हनुमान मंदिर है। तीनों तीर्थो के स्थान में थोड़ी ही दूरी है। तुंदिल नामक ब्राह्मण को यहां तपस्या के फलस्वरूप रोगमुक्ति हुई थी। इसके बाद तुंदिल आश्रम चर्चा में आया। जंबू तीर्थ महात्म को लेकर यहां के लोग बताते हैं् बहुत समय पहले देव शर्मा नामक ब्राह्मण को यहां तपस्या के दौरान जंबूक (सियार) का दर्शन हुआ और वह सियार देखते-देखते दिव्य देहाधारी हो गया। इसीलिए इसे जंबूतीर्थ के नाम से जाना गया।

श्रीअगस्त्य मुनि आश्रम:- इस स्थान को अगस्त्य मुनि की तपस्थली के रूप में मान्यता है लेकिन इसके साथ ही करनैलगंज के समीप सकरौरा गांव में सरयू तट पर भी ऐसे ही स्थल की बात कही जाती है, लेकिन अगस्त्य मुनि संबंधी शिलालेख यहां लगा है। जानकारों का कहना है कि ऋषि गण नदियों के तट पर एक से ज्यादा स्थानों पर घूमते-फिते तपस्या करते रहते थे। ऐसा लगता है कि अगस्त्य मुनि ने सरयू तट के दोनों स्थानों पर निवास के साथ तपस्या की थी। अयोध्या दर्पण में कहा गया है कि इस स्थल पर तीन रात्रि निवास करने पर अग्निष्टोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

श्री पाटेश्वरी देवी मंदिर:-शहर के कैंट क्षेत्र में स्थित है। इसे सिद्वपीठ के रूप में मान्यता है। यद्यपि इसे उन ५१ शक्तिपीठों में मान्यता नहीं है, जहां भगवान शंकर से सती के शव लेकर विचरण करते समय भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से कटकर गिरे थे लेकिन स्थल पर लगाए गए शिलालेख में इसे उसी काल का बताया गया है।

उत्तरी भवानी (वाराही देवी):- गोंडा जिले में सूकर क्षेत्र से ११ किलोमीटर पूरब की ओर उत्तरी भवानी का प्रसिद्ध धर्मस्थल है। इसे ही वाराही देवी के नाम से जाना जाता है। गोंडा जिले के रगडग़ंज (बेलसर) से सडक़ मार्ग से चलकर १२ किलोमीटर दूरी पर यह स्थान मिलता है। आसपास के लोगों का कहना है कि यहां एक सुरंग है। सैंकड़ों साल पहले किसी-किसी को इस स्थान पर रात्रि में एक दिव्य ज्योति पुंज का दर्शन होता था। जैसे-जैसे निकट जाते एक महिला की छाया दिखने लगती और समीप जाने पर वह दृश्य लुप्त हो जाता था। चर्चा बढऩे पर यहां एक मंदिर का निर्माण कर भगवती दुर्गा जी की मूर्ति स्थापित कर दी गई। प्रत्येक सोमवार व शुक्रवार और नवरात्रि के समय यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं का मेला लगता है, मनौतियां पूरी होती है। इसका संबंध भगवान वाराह के अवतार से भी जोड़ा जाता है। भगवती वाराही का भगवान वारह से कोई जुड़ाव है? यह आध्यात्मिक चिंतन का विषय है। इस स्थल को ८४ कोस के तीर्थ स्थलों में शामिल नही ंकिया गया है। अयोध्या दर्पण पुस्तक में भगवान वाराह के लीला स्थल की परिधि वाराह क्षेत्र में वाराही देवी को तीर्थ क्षेत्र के रूप में शामिल किया गया है।

महर्षि यमदग्नि आश्रम:-महर्षि यमदग्नि का यह आश्रम गोंडा जनपद के तरबगंज के पास थाना मोड़ से आगे बढऩे पर जमथा गांव के पश्चिमी छोर पर स्थित है। यहां यमदग्नि कुंड के साथ उत्तर तट पर नारद शैली में एक विशाल शिवालय स्थित है। गीताप्रेस गोरखपुर से विक्रम संवत् २०५६ में प्रकाशित कल्याण के तीर्थ अंक में इसे लिखा गया है। मंदिर में श्रीशिव पंचायतन विग्रहों की प्रतिष्ठा हुई है। इससे पूर्व में एक देवी मंदिर और एक महर्षि यमदग्नि का पूजित मंदिर है। पूर्वजों ने यहां एक संत निवास भी बनाया है। यह स्थल महर्षि यमदग्नि की तपस्थली मानी जाती है। महर्षि यमदग्नि ऋषि ऋचीक के पुत्र थे और महर्षि यमदग्नि के पुत्र भगवान परशुराम थे। लाला सीताराम जी ने अपनी पुस्तक अयोध्या का इतिहास में बताया है कि यमदग्नि के पुत्र भगवान परशुराम जी थे। इनके आदि पूर्वज महर्षि भृगु थे। महर्षि यमदग्नि सप्त ऋषियों में से एक थे। वैदिक मंत्रों के वह मंत्रदृष्टा कहे जाते थे। धुनर्वेद विद्या इनकी पैतृक संपत्ति रही है। अयोध्या और इक्ष्वाकु वंश से इनका घनिष्ट रिश्ता रहा है। गांव के लोगों का कहना है कि पहले यह स्थान इंसानी बसावट से दूर जंगल क्षेत्र में था लेकिन अब यह गांव की परिधि में आ गया है। इस स्थान पर कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से सप्तमी तक शिव विवाह महोत्सव का आयोजन होता है। यज्ञानुष्ठान संपन्न होते हैं। इस स्थान पर शिलालेख नहीं है। यह स्थान ८४ कीस के तीर्थ स्थलों में वर्णित नहीं है। हालांकि चौरासी कोसी परिक्रमा के परिक्रमा इसी स्थल से होकर गुजरती है। परिक्रमार्थियों के लिए यहां भोजन और विश्राम की सुविधा की जाती है।

ऋषि अष्टावक्र आश्रम:- महर्षि यमदग्नि आश्रम से पश्चिम की ओर एक कोस पर अमदही गांव में ऋषि अष्टावक्र का आश्रम है। इसे रामघाट के नाम से भी जाना जाता है। अष्टावक्र ने विदेह राजा जनक के दरबार में विद्वत समाज को फटकार लगाई थी। इस स्थल पर सैंकड़ों वर्ष पुराना एक अर्धनारीश्वर का मंदिर है। माना जाता है कि ऋषि अष्टावक्र भगवान शिव की आराधना में लीन रहते थे। स्थल की देखभाल करने वाले शास्त्री जी बताते हैं कि यह रामायणकालीन स्थल है। ८४ कोसी परिक्रमा का यहां भी पड़ाव स्थल है।

शौनडीहा:-अष्टावक्र आश्रम से कुछ किलोमीटर दूर सरयू के तट के पास बनगांव से पूर्व की दिशा में श्रीशौनक मुनि का आश्रम है। पुराणों में श्रीसूक्त शौनक संवाद प्रसिद्ध है। यहां के लोगों का कहना है कि शौनक मुनि यहीं रहकर तपस्या करते थे। यहां राम, लक्ष्मण व माता सीता का मंदिर है। धर्म की चर्चा शौनक मुनि की चर्चा के बगैर अधूरी कही जा सकती है। यह स्थल भी ८४ कोस के तीर्थ स्थलों में शामिल नहीं है।

संत तुलसीदास की जन्मस्थली राजापुर:-जनपद गोंडा में परसपुर से दक्षिण लगभग १४ किमी की दूरी पर संत तुलसी दास का जन्मस्थान राजापुर गांव है। हालांकि बांदा जिले में भी बाबा तुलसी के जन्म स्थान की बात कही जाती है। राजापुर सरयू तट के करीब स्थित है। बाबा तुलसी ने विश्व में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले महाकाव्य श्रीराम चरित मानस की के साथ अन्य तमाम ग्रंथों की रचना की है। इनका जन्म राजापुर के रहने वाले श्री आत्माराम दुबे के पुत्र के रूप में हुआ था। संत तुलसी दास ने हनुमंत लला और आराध्य श्रीराम की अमिट भक्ति के आशीर्वाद से जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था। गांव में दूबे परिवार के लोग अपने को संत तुलसी दास के वंश परंपरा से जुड़े होने का दावा करते हैं। यहां की देखरेख व रखरखाव करने वाले ओंकार बताते हैं कि संत तुलसी दास के पिता श्रीआत्माराम दुबे के नाम राजस्व अभिलेखों में अब भी ५० बीघे जमीन दर्ज है, जबकि बाबा तुलसी दास के नाम सौ बीघे की जमीन राजस्व अभिलेखों में दर्ज है। गांव वालों ने उनकी जन्मस्थली का शोधन कुछ इस तरह किया था कि गांव के बाहर एक ऐसा स्थल था जहां दो पीपल के वृक्ष थे। यहीं पर माटी की एक कुटिया थी। बताते हैं कि इस कुटिया में शाम होते ही दीपक स्वयं प्रकाशित हो जाता था। इसी के आधार पर गांव के लोगों ने गिरे एक पीपल के वृक्ष को बेच कर एक छोटे से मंदिर का निर्माण कराया। श्रीराम, सीता व लक्ष्मण के साथ हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित कराई। इसी मंदिर में सेवक भाव में संत तुलसी दास की मूर्ति विराजमान है।

वह बताते हैं कि बाबा तुलसी दास यहां से सात-आठ किलोमीटर दूर बाराह क्षेत्र में रहने वाले बाबा नरहरि दास के पास बाल्यकाल में ही चले गए और उनके शिष्य हो गए थे। वहां से आने के बाद वह प्रतिदिन राजापुर के निकट बहने वाली माता सरयू के उस पार पुराने हनुमान मंदिर पर पूजन-अर्चन के लिए सरयू पार कर पहुंचते थे। ओंकार बताते हैं कि श्रीहनुमान जी की कृपा से बाबा तुलसी को श्रीहनुमान चालीसा लिखने की प्रेरणा मिली थी। यह हनुमान मंदिर वर्तमान समय में भी है। हनुमान मंदिर संत तुलसी दास के निवास से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर सरयू के डलुवाघाट पर स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए कोई मार्ग नहीं है। सरयू पार करना केवल नाव से संभव है। वह बताते हैं कि कुछ साल पहले गोंडा के तत्कालीन जिलाधिकारी की पहल पर बाबा तुलसी और उनके पिता श्रीआत्मा राम दुबे की जमीनों का सीमांकन कराया गया, जिस पर बटाई पर खेती कराई जा रही है। इसी से यहां का खर्च चलता है। स्थान की महत्ता का अंदाजा इस घटना से लगाया जा सकता है कि देश में रामकथा के मर्मज्ञ माने जाने वाले श्रेष्ठ संत मोरारी बापू ने नौ दिनों तक यहीं पर श्रीरामकथा श्रद्धालुओं को सुनाई थी। वह स्वयं अपने अनुयायियों के साथ प्रतिदिन संत तुलसी दास के स्नान स्थल डलुवाघाट पर मां सरयू के पवित्र जल में स्नान के लिए जाया करते थे। गोंडा जिला प्रशासन ने यहां श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए विश्राम स्थल सहित अन्य निर्माण करवाए हैं। हलांकि यह स्थल ८४ कोस के तीर्थ स्थलों में वर्णित नहीं है।