उमेश सिंह

‘अहो! अयोध्या’ ऐसी पुस्तक है जो आपको अयोध्या की यात्रा पर ले जाती है। इस यात्रा का हर पड़ाव नया कुछ जानने समझने का अवसर उपलब्ध कराता है। रामजी के बहाने मर्यादा, संस्कार, त्याग और पुरूषार्थ को आत्मसात करने का अवसर देतें हैं। पुस्तक के कुछ अंशों के जरिए हम आपको अयोध्या को समझाने की कोशिश पहले से करते आए हैं। इसी क्रम में वृहत्तर भारत और अयोध्या के रिश्ते को यहां रेखांकित कर रहे हैं।

अयोध्या में अंकुरित पुष्पित पल्लिवित हुई संस्कृति, संस्कार, मर्यादा, धर्म, अध्यात्म, आचरण, व्यवहार, श्रीराम के साथ भारत देश में फैल गई। मजबूत आधार पर सृजित हुए संस्कार और संस्कृतियां देश के लगभग सभी प्रदेशों में किसी न किसी रूप में पहुंची। मानव जीवन का संचालन करने के लिए लोगों ने इसे आधार बनाया। इस पर सदियों से चलते आ रहे हैं। अयोध्या से निकली सांस्कृतिक विरासत अपने इहलौकिक और पारलौकिक दर्शन को समेटे थी। इसी का प्रभाव रहा कि यह देशज न रहकर बढ़ी तो लगभग पूरे विश्व फैल गई। श्रीराम की मर्यादा के साथ अयोध्या के दर्शन विदेशों में अब और अधिक हो रहे हैं, क्योंकि अयोध्या के रामलला, वनवासी राम, राजा रामचंद्र और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से गढ़े गए संस्कार लोगों के दिलों को छू रहे हैं। भारत देश के विभिन्न प्रांतों की शैलियां भिन्न हो सकती हैं लेकिन यहां की चित्र लिपियों से लेकर लोक की विभिन्न कलाओं में श्रीराम के साथ अयोध्या विद्यमान है। यह अयोध्या के श्रीराम की संस्कृति का प्रभाव ही है कि देश के लगभग सभी प्रांतों में रामलीला के तरह-तरह के आयोजन होते हैं।

मिथिला की लोक चित्रकला मधुबनी में मनोहारी चित्र मिलते हैं। विवाह परंपरा में रामकथा का स्पष्ट प्रभाव रेखांकित किया जा सकता है। बुंदेलखंड का संक्रमण क्षेत्र चित्रकूट है। यह रामकथा का महत्वपूर्ण केंद्र है। श्रीराम ने यहां कई वर्षों तक निवास किया था। महाकवि कालिदास ने मेघदूत में चित्रकूट के रामगिरि आश्रम को प्रसिद्ध रामतीर्थ कहा है। मूर्तिकला में रामचरित्र का सबसे पहले अंकन पन्ना जिले के नचना गांव में और झांसी के देवगढ़ के विष्णु मंदिर में प्राप्त हुआ है। यहां कलात्मक प्रस्तुति है। कालिंजर दुर्ग का पांचवां द्वार हनुमान द्वार है। खजुराहों में भी हनुमान जी की बड़ी मूर्ति है। बुंदेलखंड का प्रसिद्ध दीवारी नृत्य श्रीराम के यहां रहने के प्रभाव के रूप में देखा जाता है। दीपावली के दिन कामदगिरि क्षेत्र के मैदान में शस्त्र प्रदर्शन का आयोजन होता है। यह दीपावली नृत्य बुंदेलखंड की किसी भी घटना या प्रसंग पर आधारित नहीं है बल्कि दीपावली के दिन श्रीराम के अयोध्या पहुंचने पर जंगल के ग्रामीण साथी शस्त्र प्रदर्शन का यह मनोहारी नृत्य करते हैं।

यद्यपि बृज श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है लेकिन यहां भी रामलीला के मंचन के साथ अन्य क्रियाकलाप में भी अयोध्या और श्रीराम के दर्शन होते हैं। राजस्थान की चित्रकला में श्रीरामकथा का व्यापक असर है। सम्राट अकबर ने रामायण का अनुवाद कराया, मेवाड़ शैली में रामायण का अद्भुत चित्रांकन है। इसी तरह मेवाड़, कोटा, बूंदी, किशनगढ़, अलवर, बीकानेर, जयपुर आदि की शैलियों में रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण के आधार पर उत्कृष्ठ चित्र बनाए गए। यहां के लोकगीतों में रामकथा का वर्णन प्राप्त होता है।

अयोध्या से सुदूर भारत की पूर्वी सीमा मणिपुर में भी श्रीराम और अयोध्या का प्रभाव है। सन् १४६७ ईसवी में मणिपुर के राजा कियांबा को वर्मा (पोंग) के राजा खेखोंभा के द्वारा विष्णु विग्रह दिए जाने का उल्लेख मिलता है। यहां मणिपुर के महाराज गरीब नेवाज ने रामानंदी संप्रदाय का व्यापक प्रचार-प्रसार करवाया। उनके वैष्णवीकरण के बाद मणिपुर में रामायण की कथा अत्यंत लोकप्रिय हुई। दशहरे का दिन मणिपुर में रामणकाप्पा (वध) का दिन कहलाता है। दीपावली का त्योहार भी यहां मनाया जाता है। गरीब नेवाज से १७०९-१७४८ ईसवी के बीच दो सिक्के जारी किए गए थे, जिनमें देवानागरी लिपि में जय श्रीराम अंकित है। रामायण लोक नाट्य परंपरा के अनुसार रामलीला परंपरा का भी प्रादुर्भाव मणिपुर में हुआ।

असम में रामकथा का प्रभाव उनकी लोक संस्कृति में, काव्यों में, लोक नाट्यों में, चित्रकलाओं में और भजनों में पर्याप्त रूप से प्राप्त होता है। असम के सांस्कृतिक जीवन में श्रीराम का आदर्श भौतिकवादी, तनाववादी युग में भी मुक्ति का एक प्रयास है। राम मंदिरों की स्थापना, लोक नाट्य और भजनों के माध्यम से श्रीराम के आदर्श रूप असम के लोगों में मौजूद हैं।

उड़ीसा में बाबा तुलसी के रामचरित मानस के आधा दर्जन से ज्यादा अनुवाद प्राप्त होते हैं। गांवों में हनुमंतलला के मंदिर रामलीलाओं के मंचन के साथ रामचरित मानस का गायन किया जाता है। जगन्नाथपुरी मे रामवनवमी की परंपरा लंबे समय से है। रामानुज संप्रदाय का एम्मार मठ यहीं पर है। उड़ीसा की उत्कल कला में फूल पत्तियों के साथ रामकथा पर आधारित भित्ति चित्रि प्राप्त होते हैं। बाद में भित्ति चित्रों से विकसित होकर कपड़े की पट्टी पर पट्ट शैली का विकास हुआ। इसमें पौरणिक प्रसंगों के साथ रामलीला की एक विशिष्ट शैली विकसित हुई। उड़ीसा में रामलला के मुखौटे बहुतायत से प्राप्त होते हैं। रामलीला यहां अत्यंत श्रद्धा और उल्लास से खेली जाती है। राज्य संग्रहालय उड़ीसा के भुवनेश्वर स्थित संग्रहालय में ताड़ के पत्तों पर रामकथा के दृश्यों का विशाल संग्रह भी मिलता है।

कर्नाटक में अयोध्या के श्रीरामकथा और उनके पात्रों का स्पष्ट प्रभाव है। कर्नाटक के लोगों के नाम रामप्पा, रामय्या, रामण्णा, रामचंद्रय्या, रामचंद्रप्पा, रामचंद्र राव, रामराव, सितम्मा, सीताबाई, हनुमंतप्पा, हनुमंत, हनुमंत राव, हनुमंत राय आदि नाम इसी के प्रभाव में रखे जाते हैं। कर्नाटक संगीत परंपरा में रामप्रिय एवं रघुप्रिय जैसे राग प्राप्त होते हैं। कन्नड़ के बाल गीतों, संस्कारों और शिलालेखों में रामकथा का संकेत प्राप्त होता है। कन्नड़ लोकजीवन में सर्वाधिक स्वीकृत यक्षगान नाट्य शैली रामकथा पर ही आधारित है। कर्नाटक के उडुपी जिले में कई यक्षगान केंद्रों में रामकथा का मंचन किया गया। यक्षगान केंद्रों से कठपुतलियों के माध्यम से भी रामकथा का मंचन हो रहा है।

आंध्र प्रदेश में भद्राचलम नगर की स्थापना श्रीराम की भक्ति से प्रसन्न होकर भद्र नामक एक आदिवासी ने की थी। ऐसी मान्यता आंध्र प्रदेश में है। आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के नरसरावपेटा से ५६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित स्थान पर ही जटायु और रावण का युद्ध हुआ था। पंचवटी गोदावरी के तट पर इसी प्रदेश में स्थित है। आंध्र के आदिवासियों व वनवासियों पर श्रीराम का स्पष्ट प्रभाव है। इसका कारण पंचवटी प्रसंग में आदिवासियों व वनवासियों का श्रीराम से संबंध माना जाता है। शबरी आश्रम में श्रीराम ने शबरी के झूठे बेर खाए थे। यह भी आंध्र प्रदेश को श्रीराम और श्रीरामकथा से गहरे से जोड़ती है। किष्किंधा पर्वत पर श्रीराम की मित्रता सुग्रीव के साथ हुई थी। उन्होंने बालि का वध किया था। इस क्षेत्र में इसका साफ प्रभाव यहां के लोगों पर संस्कारों के रूप में दिखता है। आंध्र प्रदेश में अयोध्या से श्रीराम के साथ निकली संस्कृति इससे जुड़े प्रसंग बिखरे हैं। यहां रामनवमी अत्यंत श्रद्धा और उल्लास से मनाई जाती है। रामभक्ति की परंपरा अविछिन्न रूप से प्राप्त होती है।

देश के सुदूर दक्षिण तमिलनाडु के घर-घर में राम का नाम अत्यंत प्रिय है। इसका प्रमाण नामकरण संस्कार में साफ देखा जाता है। कल्याणरामन, पट्टाभिरामन, सीतारामन, जानकीरामन, रामब्रह्म, शिवरामम, सेतुरामम, रामरत्नम, रामराज, रामलिंगम, रामनाथम, रामसुब्रहमण्यम, शिवरामर, रामक, तुलसीरामन, सुंदररामन, रामन, अभिरामन, जयरामन आदि नाम धार्मिक समन्वय की दृष्टि से श्रीराम से सीधे स्वीकार किए जाते हैं। यहां उत्तर भारत की तरह रामलीला के अंत में रावण, कुंभकरण या मेघनाद का पुतला दहन नहीं होता लेकिन दशहरे के समय रामायण का पाठ अवश्य होता है। हनुमान की पूजा और सुंदरकांड का वाचन श्रद्धा से किया जाता है। तमिलनाडु के जीवन में उनके लोक आदर्श में राम के आदर्श साफ दिखाई पड़ते हैं। तमिलनाडु के साहित्य में छह से दसवीं शताब्दि के काल को भक्तिकाल माना जाता है, जिसमें विष्णु भक्त (आलावार) व शिव भक्त (नयनमार) मिलते हैं। कम्ब रामायण तमिलनाडु का प्रसिद्ध ग्रंथ है। कम्ब दक्षिणी तमिलनाडु के प्रमुख कवि थे, जिनके पहले तमिलनाडु के महाकाव्य की परंपरा नहीं मिलती। महाराज शिवि से अपने शरीर के मांस को काटकर कबूतर की रक्षा किए जाने के प्रसंग से प्रभावित होकर महाकवि कम्ब ने महाराजा शिवि के आराध्य श्रीराम की कथा को आधार बनाकर रामावतारम महाकाव्य की रचना की। वाल्मीकि के रामायण और कम्ब के रामायण में उत्तर और दक्षिण भारत की संस्कृतियों का थोड़ा सा अंतर प्राप्त होता है। तमिलनाडु में आज भी प्रत्येक शुभ कार्य का शुभारंभ श्रीरामजयम लिखकर किया जाता है।

दक्षिण भारत के केरल के लोकजीवन पर श्रीराम के आदर्श स्वरूप की अमिट छाप है। यद्यपि केरल की मूल संस्कृति द्राविण संस्कृति कही जाती है लेकिन मलयालम साहित्य में श्रीरामकथा का प्रभाव उनके लोकगीतों से होकर आया। राम के नाम रूप और उनके गुण केरल के लोगों को बहुत आकर्षित करते रहे हैं। रामभक्त मंडलियां स्थानों और व्यक्तियों के नाम इसके प्रमाण हैं। केरल में श्रीराम के अत्यंत प्रसिद्ध और विशाल मंदिर हैं। मंदिरों में रामकथा पात्रों की शिला मूर्तियां भित्ति चित्रों के रूप में भी प्राप्त होती है। यहां के नामकरण पर भी अयोध्या के श्रीराम का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। काच्चूरामन, कंचुरामन जैसे नाम मिलते हैं। स्थानों के नामों में भी रामपुरम, रामनगरी, रामनाट्यपुरा जैसे नाम प्राप्त होते हैं। केरल की लोककला पुतुल कला मे चमड़े की पुतलियों से श्रीरामकथा का मंचन होता रहा है। रामकथा को गाकर जीविका चलाने वाली एक विशेष जाति पंडारण यहां पाई जाती है, जो छोटे-छोटे वाद्ययंत्रों से लोक शैली में रामकथा का गायन करते हैं। केरल की महत्वपूर्ण कला कथकली, रामकथा की ऋणी है। इसी तरह देश के दूसरे प्रांतों में भी किसी न किसी रूप में अयोध्या के मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का प्रभाव दिखाई पड़ता है।