यह बात कम लोग जानते हैं कि राममंदिर आंदोलन के सारे सूत्र मोरोपंत पिंगले के पास थे। वही इस आंदोलन के शिल्पी थे। अयोध्या में राम जन्मभूमि मुक्ति का आंदोलन वैसे तो साढ़े चार सौ साल से चल रहा था। पर मोरोपंत पिंगले एक ऐसे रणनीतिकार थे, जिन्होंने रामशिलाओं के जरिए इस आंदोलन को एक झटके में गांव-गांव, घर-घर तक पहुंचा दिया। हालांकि वे हमेशा नेपथ्य में रहे। हर क्षण उनके दिमाग में यही बात चलती रहती थी कि कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगों का भावनात्मक लगाव इस आंदोलन से हो।

यह कहना गलत नहीं होगा कि अयोध्या आंदोलन को प्राण देने का कार्य मोरोपंत पिंगले ने किया। पहले-पहल शिला-पूजन की कल्पना उन्होंने ही की थी। जिस तरह देशभर में रामशिलाएं पुजवाकर उन्होंने हर पूजित शिला से लाखों-लाख लोगों का भावनात्मक रिश्ता बनवाया, वह एक अभिनव प्रयोग था। देश भर में कोई तीन लाख रामशिलाएं पूजी गईं।

कोई 25 हजार शिलायात्राएं अयोध्या के लिए निकलीं। कोई छह करोड़ लोगों ने रामशिला का पूजन किया। चालीस देशों से पूजित शिलाएं अयोध्या आईं। पहली शिला बदरीनाम में पूजी गई। इस तरह एक सघन भावनात्मक आंदोलन मोरोपंत पिंगले ने खड़ा कर दिया। वे महाराष्ट्र के एक चित्तपावन ब्राह्मण परिवार से थे। स्वभाव से बेहद सरल और विनम्र। उन्होंने नागपुर के मौरिस कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई की थी।

आंदोलन को उभारने के लिए उन्होंने समय-समय पर शिलापूजन के साथ शिलान्यास, चरण पादुका, राम-जानकी यात्रा की पूरी रणनीति बनाई थी। मोरोपंत पिंगले ने राममंदिर निर्माण के स्वप्न को अयोध्या से निकालकर देश भर में फैला दिया। यही वजह थी कि वे इस आंदोलन के फील्ड मार्शल कहे जाते थे। दूसरा सच यह है कि आंदोलन के दौरान जिस व्यक्ति की तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव से सबसे अधिक बार भेंट हुई थी, वे मोरोपंत पिंगले ही थे।

स्मरण रहे कि 1984 की राम-जानकी रथयात्रा अयोध्या आंदोलन के लिए प्रस्थान बिंदु सरीखी थी। पिंगले इस यात्रा के संयोजक और नियंत्रक थे। इन रथों में भगवान राम को कारावासे के भीतर दिखाया गया था। यह अयोध्या में राम की स्थिति का जीवंत चित्र था। इन रथों ने हिन्दी पट्टी के राम उपासकों की सुप्त चेतना में विद्रोह का उफान भर दिया। उन्हें राम की खातिर कुछ भी कर गुजरने की मन:स्थिति से ओतप्रोत किया। इससे पहले वे 1982-83 में एकात्मता यात्रा के दौरान अभूतपूर्व संगठनात्मक क्षमता का परिचय दे चुके थे। एकात्मता यात्रा तीन स्थानों से निकली थी। इन यात्राओं को 50,000 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी।

पहली यात्रा हरिद्वार से चली थी, उसे कन्याकुमारी पहुंचना था। दूसरी यात्रा काठमांडु के पशुपतिनाथ मंदिर से चलकर रामेश्वर धाम जाने वाली थी। जबकि तीसरी यात्रा बंगाल में गंगासागर से सोमनाथ तक की थी। इन तीनों यात्राओं को एक निश्चित दिन नागपुर में प्रवेश करना था। पूरी योजना तैयार कर इन यात्राओं के नागपुर प्रवेश से पहले वे वहां पहुंच गए। वहां दूसरे नगरवासियों की तरह सड़क के किनारे खड़े होकर यात्राओं को नगर में प्रवेश करते देखा। वे इसी स्वभाव के थे। उनके कार्य की शैली थी- सूत्रधार की भूमिका में रहना। उसका कभी कोई श्रेय न लेना। सभी कुछ रचना, लेकिन दृष्टि से हमेशा ओझल रहना।

वे कभी प्रेस वार्ता नहीं करते थे। बड़े मंच पर नहीं जाते थे। यहां तक की किसी सभा में बोलने से भी बचते थे। लेकिन, उनकी उपस्थिति हर जगह होती थी। पिंगले जी 10-15 लोगों की सभा में जरूर अपनी बात को विस्तार देते थे। योजना बनाते थे और आगे की रणनीति पर गहन विचार-विमर्श करते थे।

1993 में उन्होंने विहिप के कार्य से स्वयं को मुक्त कर लिया था। उसके बाद वे गो-सेवा के कार्य में जुट गए थे। हिंदू जनमानस की चेतना में अयोध्या को जगाने का ऐतिहासिक काम करने के लिए मोरोपंत पिंगले इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।